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________________ १४१ अवबोध - १३ है । शब्द भी काम का उद्दीपन करते हैं। इसलिए उत्तराध्ययन आदि जैन आगमों में मुनि के लिए स्त्रियों के श्रोत्रग्राह्य शब्द - कूजन, रोदन, क्रन्दन तथा मधुर गीत आदि शब्दों को सुनने का निषेध किया गया है, मुनि के लिए वैसे स्थान में रहने का भी वर्जन किया गया है जहां से उस प्रकार के शब्दों के कानों में पड़ने पर ब्रह्मचर्य के भंग की आशंका हो सकती है । शब्दसंगीत के माध्यम से ही सर्प, हरिण आदि जीवों को शब्दान्ध बनाकर अपने पाश में बांधा जाता है। इसलिए शब्द भी कामोत्पत्ति में सहायक बनते हैं। रसना का और जननेन्द्रिय का परस्पर गहरा सम्बन्ध है । जीभ की तृप्ति के लिए किया हुआ अतिमात्र और प्रणीत आहार तथा अत्यधिक खट्टा-मीठा चरपरा तथा नमकीनयुक्त भोजन कामवासना को उद्दीप्त करता है। उस प्रकार के आहार से अपान वायु दूषित होती है, पेट में भारीपन का अनुभव होता है, मलावरोध होता है, कुवासना की जागृति होती है, वीर्य पर अधिक चाप होता है और उससे वीर्य की क्षति होती है। इसलिए दसवैकालिकसूत्र (५।२।४२ ) में मुनि के लिए 'पणीयं वज्जए सं-प्रणीतरस का वर्जन किया गया है। स्पर्शेन्द्रियजन्य काम सबसे अधिक प्रबल होता है। वह मनुष्यों को कामविह्वल बनाता है। उसे कामराग अथवा मदनकाम से भी अभिहित किया जा सकता है। स्नेहराग भी काम को बढाने वाला है। गृहस्थों के साथ, फिर चाहे पुरुष हों या स्त्री हो रागात्मक परिचय करना ब्रह्मचारी के लिए हानिप्रद है | इसलिए दसवैकालिकसूत्र (८।५२ ) में कहा गया- ' - 'गिहिसंथवं कुज्जा' - मुनि गृहस्थों से संस्तव - संसर्ग या परिचय न करे । इस प्रकार इच्छाकाम अथवा मदनकाम-दोनों ही ब्रह्मचर्य की हानि करते हैं, काम को उभारते हैं। उत्तराध्ययनसूत्र (९।५३) में कामदोषों के विषय में कहा गया 'सल्लं कामा विसं कामा, कामा आसीविसोवमा । कामे पत्येमाणा, अकामा जंति दोग्गई । । ' काम-भोग शल्य के समान हैं, विष के समान हैं और आशीविष सर्प के समान हैं। काम-भोगों की इच्छा करने वाले उनका सेवन न करते हुए भी दुर्गति को प्राप्त होते हैं। जिस प्रकार खून से सने हुए वस्त्रों का खून से कभी परिष्कार नहीं For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.003217
Book TitleSindurprakar
Original Sutra AuthorSomprabhacharya
AuthorRajendramuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages404
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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