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सिन्दूरप्रक था-'सभी इन्द्रियों और सम्पूर्ण विकारों पर अधिकार कर लेना है ब्रह्मचर्य है।'
जैन आगमों, वेदों, उपनिषद्, गीता तथा स्मृतियों में ब्रह्मचर्यमहिम का प्रचुरता से मंडन हुआ है-किसी ने ब्रह्मचर्य को उत्कृष्ट तप माना । तो किसी ने उत्कृष्ट व्रत। किसी ने ब्रह्मचर्य को सर्वोत्कृष्ट तीर्थ कहा है तं किसी ने उत्कृष्ट शक्ति कहकर संबोधित किया है। किसी ने ब्रह्मचर्य के परम भूषण से अलंकृत किया है तो किसी ने यज्ञ और मौन की अभिध से अभिहित किया है।
प्रश्नव्याकरण (९/४) में ब्रह्मचर्य के महत्त्व को दर्शाते हुए बतलाय गया है-ब्रह्मचर्य भगवान है। वह ग्रहगण-नक्षत्र-ताराओं में चन्द्रमा के समान है। वह चन्द्रकान्तमणि, मोती, प्रवाल व पद्मराग आदि रत्नों के उत्पत्ति-स्थानों में समुद्र के तुल्य है। जैसे मणियों में वैडूर्यमणि, आभूषण में मुकुट, वस्त्रों में क्षोमयुगल, पुष्षों में अरविन्द, चन्दनों में गोशीर्ष नदियों में शीतोदा, समुद्रों में स्वयंभूरमण, हाथियों में ऐरावत जंगली पशुओं में सिंह, सभाओं में सुधर्मा सभा, मुनियों में तीर्थंकर पर्वतों में मन्दरगिरि, वनों में नन्दनवन उत्कृष्ट हैं वैसे ही व्रतों में ब्रह्मचर्यव्रत श्रेष्ठ है।
सभी शास्त्रों में ब्रह्मचर्य का अत्यधिक महिमा-मंडन होने पर र्भ व्यक्ति ब्रह्मचर्य की साधना को इच्छाओं का दमन मानता है। फ्रायड आदि कुछ-एक मानसशास्त्री काम को मौलिक मनोवृत्ति मानते हैं। उनकी दृ में काम शरीर की स्वाभाविक मांग है। उसे रोका नहीं जा सकता। जं व्यक्ति उस मांग को पूरा नहीं करते वे या तो अर्धविक्षिप्त होते हैं या महायोगी बनते हैं। ___ अब्रह्मचर्य का संबन्ध शरीरतुष्टि और मनस्तुष्टि दोनों से जुड़ा हुअ है, इसलिए वह रतिक्रिया में प्रवृत्त होता है।
शरीरशास्त्रीय अध्ययन के अनुसार मनुष्य जैसा भी भोजन करता है वह रस, असृक्, मांस, मेद, अस्थि, मज्जा और वीर्य-इन सात धातुओं में परिणत होता है। उसकी आदि परिणति रस है और अन्तिम परिणति वीर्य है। शरीर में सब धातुओं का अपने-अपने स्थान में मूल्य है, किन्तु सबसे अधिक मूल्य वीर्य का है। वही एक ऐसी धातु है जो स्वयं के सदृश अन्य सन्तान को उत्पन्न कर सकती है। वीर्य वीर्याशय में रहता है और वह रक्त के साथ भी रहता है।
कामवासना की स्थिति में जननेन्द्रिय के द्वारा वीर्य का क्षरण होना
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