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________________ १३. अवबोध भगवान महावीर के अन्तेवासी गणधर गौतम ने जिज्ञासा की - भगवन्! 'तवेसु किं उत्तमं ? " तप में उत्तम तप क्या है ? भगवान ने कहा'तवेसु वा उत्तमं बंभचेरं ।' तप में उत्तम तप ब्रह्मचर्य है। पुनः मन में प्रश्न उभरता है कि ब्रह्मचर्य की साधना में सर्दी-गर्मी, भूख-प्यास आदि कुछ भी सहन नहीं करना होता, फिर वह उत्तम तप कैसे? प्रश्नव्याकरणसूत्र (९ / ४ ) में इसका सुन्दर समाधान मिलता है - जो व्यक्ति एक ब्रह्मचर्य की आराधना कर लेता है उसके शील, तप, विनय, संयम, क्षमा, निर्लोभता, गुप्ति आदि सभी व्रत- गुणों की आराधना हो जाती है। उसके भंग होने पर वे सभी गुण खंडित और विनष्ट हो जाते हैं। इसके आधार पर ब्रह्मचर्य को उत्तम तप कहा जा सकता है। ब्रह्मचर्य की साधना अन्तर तप की साधना है। इसमें अन्तरात्मा को तपाना पड़ता है। शील प्रकरण भारतीय संस्कृति में ब्रह्मचर्य और शील- दोनों शब्द प्रचलित हैं। शील शब्द व्यापक अर्थ में लिया जाता है। उसके अनेक अर्थ हैं - चारित्र, नैतिक, सिद्धान्त, स्वभाव, सदाचार और ब्रह्मचर्य आदि । प्रस्तुत प्रकरण में शील का अर्थ ब्रह्मचर्य के अर्थ में प्रयुक्त है। ब्रह्मचर्य का अर्थ है - ब्रह्मणि चरणमिति ब्रह्मचर्यम् । अर्थात् ब्रह्म में आचरण करना। ब्रह्म का अर्थ है आत्मा और चरण का अर्थ है गति । आत्मा की ओर गति करना, अन्तर्मुखी बनना ब्रह्मचर्य है । ब्रह्म के अन्य अर्थ हैं - ज्ञान, परमात्मा और गुरुकुलवास। प्राचीन परम्परा में विद्यार्थी उपनयन के अनन्तर गुरुकुलवास में रहकर विद्याध्ययन करता था। वह वहां की चर्या का विशेषरूप से पालन करता था । उसे इन्द्रिय-संयम और मन का संयम करना होता था । अतः इसे इस प्रकार भी कहा जा सकता है - 'इन्द्रियमनः संयमो ब्रह्मचर्यम्' - इन्द्रिय और मन का संयम करना ब्रह्मचर्य है। मनोनुशासन में ब्रह्मचर्य की परिभाषा इस प्रकार है'वस्तीन्द्रियमनसामुपशमो ब्रह्मचर्यम्' - जननेन्द्रिय, इन्द्रियसमूह और मन की शान्ति को ब्रह्मचर्य कहा जाता है। महात्मा गांधी ने इस विषय में कहा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003217
Book TitleSindurprakar
Original Sutra AuthorSomprabhacharya
AuthorRajendramuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages404
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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