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________________ १३६ सिन्दूरप्रकर के घर से सीने के लिए सूई मांगकर लाता है, यदि वह उससे काटा निकालता तो उसे अप्रामाणिकता का दोष लगता है। वह उससे सीने का काम ही कर सकता है। यह उसकी प्रामाणिकता है। यदि कोई सूई से सीने का काम भी करता है और उससे कांटा भी निकालता है तो उसमें अस्तेयव्रत के भंग होने का दोष लगता है। ___ एक गृहस्थ श्रावक सम्पूर्णरूप से अस्तेयव्रत का पालन नहीं कर सकता। वह केवल स्थूल चौर्यकर्म से ही उपरत होता है। उसका वह अस्तेय अणुव्रत कहलाता है। प्रस्तुत 'अस्तेय प्रकरण' में आचार्य सोमप्रभ ने भी चौर्यकर्म को अनेक उपमाओं से उपमित करते हुए उसके दुष्परिणामों की चर्चा की है तथा उसे त्याज्य बतलाया है। वे इस विषय में कहते हैं-चौर्यकर्म दूसरों के मन को पीड़ा पहुंचाने के लिए क्रीडावन है। वह हिंसा का उत्पत्तिस्थल है। पृथ्वी पर फैलने वाली विपत्तिरूप लताओं के लिए वह मेघपटल है। वह कुगति में ले जाने का मार्ग है तथा स्वर्ग और मोक्षरूप नगर के लिए आगल के समान है, इसलिए हित चाहने वाले मनुष्यों को इसका वर्जन करना चाहिए। इसी प्रकार सूरीश्वर ने 'अस्तेयव्रत' की स्तुति करते हुए लिखा हैजो व्यक्ति अदत्त का ग्रहण नहीं करता उसमें कल्याण की परम्परा वैसे ही निवास करती है, जैसे कमल पर राजहंसी। उससे विपत्ति वैसे ही दूर चली जाती है, जैसे सूर्य से रात्री। स्वर्ग और मोक्ष की लक्ष्मी उसकी वैसे ही उपासना करती है, जैसे विद्या विनीत की। जो व्यक्ति स्तेयप्रवृत्ति को छोड़कर अस्तेय में रमण करते हैं वे उस चक्षु को पा लेते हैं, जो आकांक्षाओं का अन्तक है। इसलिए भगवान महावीर ने ठीक ही कहा-'से हु चक्खू मणुस्साणं जे कंखाए य अंतए।' निष्पत्ति के रूप में अस्तेयव्रत की साधना का फलित है-- • प्रामाणिकता का विकास। • तनावमुक्त जीवन जीने का अभ्यास। • सुगति की उपलब्धि। • यश-कीर्ति का उपचय। • दूसरों को अभय-दान। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003217
Book TitleSindurprakar
Original Sutra AuthorSomprabhacharya
AuthorRajendramuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages404
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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