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अवबोध-१२
१३५ आययई अदत्तं'। जो असन्तुष्टि के दोष से दुःखी और लोभग्रस्त होता है वही व्यक्ति दूसरों की वस्तुओं को चुराता है।
चौर्यकर्म में प्रवृत्त मनुष्य केवल धन का ही हरण नहीं करते अपितु वे अन्यान्य असत् प्रवृत्तियां-जलाना, प्राणिवध करना, भयभीत करना, मार-पीट करना, बन्धन में बांधना, व्यक्ति का अपहरण करना, त्रास देना आदि भी करते हैं।
प्रश्नव्याकरणसूत्र में चोरी तथा चोरी करने वालों के प्रकार और उनके पकड़े जाने पर उनकी क्या र्दशा होती है आदि विषयों का भी विस्तार से प्रतिपादन है। चोरों की क्या दुर्दशा होती है, उसका संक्षिप्तसा निदर्शन इस प्रकार है-चोरों का अंग भंग कर दिया जाता है। उनको वृक्ष की शाखाओं से बान्धकर लटकाया जाता है। दोनों हाथ-पैरों को गाढ बन्धन से बान्ध दिया जाता है। पर्वत के शिखर से उनको धकेला जाता है। चोरों के नेत्र, वृषण, होठ, नासिका आदि अवयव काट दिए जाते हैं। उनका मुंह काला कर गली-गली में घुमाया जाता है, फिर श्मशान भूमि में ले जाकर उनको शूली पर लटकाया जाता है।
चोरी करना एक अनार्य कर्म है। वह अप्रीति उत्पन्न करने वाला है। सभी के द्वारा निन्दनीय है। चोरी का परिणाम क्रूर और भयंकर होता है, फिर भी व्यक्ति धन के प्रति मूर्छा और तीव्र लोभ के कारण चौर्यकर्म को नहीं छोड़ पाता। जिन्हें परधन के स्वाद का चस्का लग जाता है वे बदनामी से भी नहीं डरते। उन्हें अकृत्य कार्य करते हुए लज्जा का भी अनुभव नहीं होता। वे इस भव में भी दुःख को प्राप्त करते हैं और परभव में भी दुर्गति को प्राप्त होते हैं। ___भगवान महावीर ने मुनि के लिए सर्वथा अदत्तादान के वर्जन का उपदेश दिया है। दसवैकालिकसूत्र में कहा है- 'से गामे वा नगरे वा रणे वा अप्पं वा बहुं वा अणुं वा थूलं वा चित्तमंतं वा अचित्तमंतं वा, नेव सयं अदिन्नं गेण्हेज्जा......।' संयमी मुनि स्वामी की अनुमति के बिना गांव में, नगर में या अरण्य में कहीं भी अल्प या बहुत, सूक्ष्म या स्थूल, सचित्त या अचित्त किसी भी वस्तु का ग्रहण न करे।
प्रामाणिकता और अस्तेय का परस्पर गहरा संबंध है। प्रामाणिकता की साधना भी बिना अस्तेय की साधना के सफल नहीं हो सकती। जो व्यक्ति अस्तेयव्रत की अखंड आराधना करता है उसके प्रामाणिकता की साधना सहज सध जाती है। आगमों में कहा गया है-कोई मुनि किसी
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