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________________ १३४ सिन्दूरप्रकर प्रकारान्तर से इसे ऐसे भी कहा जा सकता है कि यदि उपभोक्ता अधिक हैं, उपभोग्य सामग्री कम है तो वहां मांग (Demand) अधिक होगी, वस्तु का अभाव होगा। प्रकृति के साधनों को कभी बढ़ाया नहीं जा सकता। वे सीमित ही होते हैं। इस संदर्भ में प्रसिद्ध अर्थशास्त्री प्रो. मार्शल ने कहा था-'प्रकृति की मेज सीमित अतिथियों के लिए लगी हुई है। वहां बिना निमंत्रण के जो भी आएगा वह अवश्य ही भूखा रहेगा।' वस्तुएं सीमित और उपभोक्ता अधिक होने पर प्रकृति में सन्तुलन स्थापित नहीं हो सकता। वस्तु के अभाव अथवा प्रभाव की स्थिति में मुख्यतया तीन बातें फलित होती हैं• अनर्थ कार्यों में प्रवृत्ति। जैसे-अदत्तादान-बिना दी हुई वस्तु का ग्रहण (चौर्यकर्म), डकैती, लूटपाट आदि। • बलपूर्वक दूसरों पर आधिपत्य। • ऐश्वर्य-विलासिता के अधिक से अधिक साधनों को जुटाने का प्रयत्ना अदत्तादान का मूल है-दूसरों के धन के प्रति अभिलाषात्मक लोभ। वह किसी में कम तो किसी में अधिक होता है। वह लोभ ही मनुष्य को चौर्यकर्म के लिए अभिप्रेरित करता है। चोरी करने वाला स्वतन्त्र होता है। वह धन पाने के लिए गरीब-अमीर के बीच भेदरेखा नहीं खींचता। वह जैसा अवसर देखता है उसी के अनुरूप धन का हरण कर लेता है। जिसका धन चुराया जाता है उस पर क्या बीतती है, वही जान सकता है। इसी आशय से योगशास्त्र में कहा गया है 'एकस्यैकक्षणं दुःखं मार्यमाणस्य जायते। सपुत्रपौत्रस्य पुनर्यावज्जीवं हृते धने।।' मारे जाने वाले अकेले जीव को ही क्षणभर के लिए दुःख का अनुभव होता है, किन्तु जिसका धन हरण किया जाता है वह व्यक्ति तथा उसके पुत्र और पौत्र जीवनपर्यन्त दुःख का अनुभव करते हैं। जैन आगम प्रश्नव्याकरण सूत्र के तीसरे अध्ययन में चोरी के कारणों का उल्लेख है। उसमें कहा है-वे ही मनुष्य चोरी करते हैं जिनका अपनी इन्द्रियों पर नियन्त्रण नहीं है, जो सुख के वशवर्ती हैं, विषयों की परवशता से पीड़ित बने हुए हैं, सघन मोह से मूढ हैं तथा जो दूसरों के धन में लुब्ध हैं। वे धन की प्राप्ति में अपनी संतुष्टि मानते हैं। उत्तराध्ययनसूत्र में कहा गया- 'अतुट्टिदोसेण दुही परस्स, लोभाविले Jain Education International For Private & Personal Use Only **** Ww.ameliorary.org
SR No.003217
Book TitleSindurprakar
Original Sutra AuthorSomprabhacharya
AuthorRajendramuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages404
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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