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________________ १३२ सिन्दूरप्रकर भय बना रहता है। हंसी-मजाक में तो मनुष्य कितनी बार असत्य-भाषण का प्रयोग कर लेता है। शास्त्रों में असत्य को निकृति-माया कहा गया है। एक असत्य को छिपाने के लिए मनुष्य कितनी बार असत्य का सहारा लेता है। जो व्यक्ति सत्य की ओर प्रेरित होता है वहां विवेक-चेतना का जागरण अति आवश्यक है। प्रश्नव्याकरणसूत्र में उसी विवेक-चेतना का उल्लेख मिलता है-'सच्चं च हियं च मियं च गाहणं च।' सत्यवचन ऐसा होना चाहिए, जो हित, मित और ग्राह्य हो। वह सत्य भी नहीं बोलना चाहिए जो संयम में उपरोध करने वाला हो, हिंसा और सावद्य प्रवृत्ति से युक्त हो, मनभेद करने वाला, प्रयोजनशून्य, विकथाकारी और कलह कराने वाला हो। भाषा-विवेक के विषय में मनुस्मृति में कहा गया 'सत्यं ब्रूयात् प्रियं ब्रूयाल ब्रूयात् सत्यमप्रियम्। प्रियं तु नानृतं ब्रूयादेष धर्मः सनातनः ।।' मनुष्य सत्य बोले, प्रिय बोले, अप्रिय-सत्य न बोले और असत्य तो प्रिय होने पर भी न बोले-यह सनातन धर्म है। इस प्रकार विवेकशून्यता से बोला गया सत्य असत्य से भी भयंकर हानिकर हो सकता है। सब जगह स्पष्टवादिता भी अच्छी नहीं होती। वह भी वहीं शोभित होती है जिसमें विवेक और मर्यादा का अनुशासन होता है। सत्य क आधार है--सत्यवाणी, सत्यव्यवहार, सत्यविचार और सत्यआचरण।रे सब ऋजुता, सरलता से ही फलित होते हैं। सत्य से भिन्न ऋजुता औ ऋजुता से भिन्न सत्य नहीं हो सकता। कायऋजुता, भावऋजुता और भाषा की ऋजुता-इस त्रयी की साधना करना ही सत्य का रूप है भगवान महावीर ने कहा- 'सच्चस्स आणाए उवढिओ मेहावी मारं तरई'-- जो सत्य की आज्ञा में उपस्थित होता है वह मेधावी पुरुष मृत्यु के क्षण को भी पार कर जाता है। सत्यवचन की निष्पत्ति है• विश्वास का अर्जन तथा ऋजुता की साधना। • आत्मोन्मुखी दिशा की ओर प्रस्थान। . अभय का विकास, कहने में निर्भीकता। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003217
Book TitleSindurprakar
Original Sutra AuthorSomprabhacharya
AuthorRajendramuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages404
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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