SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 140
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १३० सिन्दूरप्रकर सत्य अपने आप में अखंड होता है। उसे खंड-खंड कर नहीं देखा जा सकता। मनुष्य के मन की भूमिकाएं भिन्न-भिन्न होती हैं, दृष्टि भी समान नहीं होती और अपेक्षाएं भी सबके पृथक-पृथक् होती हैं, इस तरतमता के आधार पर सत्य भी अनेक रूपों में बंटकर प्रतिबिम्बित हो जाता है। सत्यशोधक केवल सत्य के बिम्ब को पकड़ता है। वह सत्य के प्रतिबिम्बों में नहीं उलझता। सत्य की अभिव्यक्ति अनेक कोणों से, अनेक अपेक्षाओं से हो सकती है। सबको मिलाने पर उसका रूप एक ही होता है, इसलिए कहा गया- 'एकं सद् विप्रा बहुधा वदन्ति'--विद्वान् एक ही सत्य को अनेक प्रकार से कहते हैं। कहने वाला स्वतंत्र होता है, किन्तु सत्य को पकड़ने वाला अपनी सत्यनिष्ठ विवेकबुद्धि का उपयोग करता है। सत्य क्या है और असत्य क्या है? यह क्षीर-नीर का भेद सत्यवादी पुरुष ही कर सकता है। इसलिए उत्तराध्ययनसूत्र में कहा गया- 'अपणा सच्चमेसेज्जा' -स्वयं सत्य खोजो। किसी के भरोसे मत रहो। किसी के कुछ कहने-सुनने अथवा किसी के आचरित सत्य को देखने से वही सत्य नहीं होता। उसकी खोज का बिन्दु अपने से प्रारंभ होता है। जो सत्य को आत्मसात् कर लेता है वह सत्यरूप मोतियों को खोजता रहता है। सत्य अपरिमेय, अतुलनीय, अनिर्वचनीय और अजेय होता है। उसकी शक्ति के सामने असत्य की शक्ति वैसे ही तिरोहित हो जाती है जैसे सूर्य के उदय होने पर अन्धकार की शक्ति। सत्य की अतुलनीयता का वर्णन करते हुए महाभारत में कहा गया 'अश्वमेधसहस्रं तु सत्यं च तुलया धृतम्। अश्वमेधसहस्राद्धि सत्यमेव विशिष्यते।।' तराजू के एक पलड़े में एक हजार अश्वमेध यज्ञों का फल स्थित है, दूसरे पलड़े में एक सत्य है। दोनों को तोलने पर हजार अश्वमेध यज्ञों की तुलना में सत्य का पलड़ा भारी रहेगा। यह सत्य की शक्ति का चमत्कार है। प्रश्नव्याकरणसूत्र में कहा गया-लोक में जितने भी मंत्र, तन्त्र, यन्त्र, विद्या, योग, जप, जृम्भक, अस्त्र, शस्त्र, शिक्षा और आगम हैं वे सभी सत्य के धरातल पर अवस्थित हैं। उनकी सिद्धि सत्य की शक्ति से ही हो सकती है। असत्य में वैसी शक्ति नहीं होती। शेखसादी ने इस सन्दर्भ में कहा था-'झूठ बोलना वक्र तलवार से कटे हुए घाव के समान है। घाव फिर भी भर जाता है, किन्तु उसका दाग शेष रह जाता है।' Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003217
Book TitleSindurprakar
Original Sutra AuthorSomprabhacharya
AuthorRajendramuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages404
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy