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________________ अवबाध-११ १२९ 'सच्चेट्ठियस्स भयए सिरी या' सत्य में स्थित व्यक्ति को श्री की प्राप्ति होती है। आज के प्रवंचनायुक्त संसार में सत्यनिष्ठ व्यक्ति की पहचान करना भी जोखिमभरा कार्य है। कौन व्यक्ति सत्यनिष्ठ है और कौन असत्यनिष्ठ, इसे जानना भी कठिन है। फिर भी व्यक्ति का सत्ययुक्त आचरण उसकी पहचान का हेतु बनता है। पाश्चात्य विचारक राबर्टसन (Robertson) ने इस प्रसंग में कहा है-'सत्य आचरण में निहित होता है, क्योंकि सत्य ऐसी चीज है, जो शब्दों की नहीं, किन्तु जीवन जीने की और अस्तित्व की वस्तु है।' सत्यवादी का जीवन खुली पुस्तक के समान होता है। उसमें कहीं भी गुप्तता अथवा प्रच्छन्नता नहीं होती। वह जो कहता है, वही करता है। मुंह से निकला हुआ उसका प्रत्येक शब्द पहले सत्य की तुला पर तुलता है, फिर वह पूरा होने तक टिका रहता है। वह जैसा देखता है, सुनता है, अनुमान करता है उसी के अनुरूप वह दूसरों को समझाने का प्रयत्न करता है। वह अपनी ओर से उसे बढ़ा-चढाकर अथवा उसमें कुछ मिलाकर प्रस्तुत नहीं करता। वह किसी स्वार्थवश अथवा लोभवश, भयवश, आवेशवश और द्वेषवश असत्य का व्यवहार नहीं करता, न वह कभी अपने दोषों को छिपाता है। ये सत्यता की कुछ ऐसी कसौटियां हैं जिनसे सत्यवादी का सत्यापन किया जा सकता है। स्थानांगसूत्र में भगवान महावीर ने सत्यस्थित व्यक्ति की पहचान के लिए चार बिन्दु प्रस्तुत किए हैं। उन्होंने चार प्रकार के सत्य बतलाए हैं- 'चउबिहे सच्चे पण्णत्ते, तं जहा-काउज्जुयया, भासुज्जुयया, भावुज्जुयया, अविसंवायणाजोगे।' जीवन में सत्य चार प्रकार से प्रतिष्ठित होता है• काया की सरलता-यथार्थ अर्थ की प्रतीति कराने वाले काया के संकेत। । भाषा की सरलता-यथार्थ अर्थ की प्रतीति कराने वाली वाणी का प्रयोग। भाव की सरलता-यथार्थ अर्थ की प्रतीति कराने वाली मन की प्रवृत्ति। . अविसंवादनायोग-अविरोधी, धोखा न देने वाली या प्रतिज्ञात अर्थ को निभाने वाली प्रवृत्ति। जिसमें ये चारों प्रकार की ऋजुताएं होती हैं वह सत्य में प्रतिष्ठित होता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003217
Book TitleSindurprakar
Original Sutra AuthorSomprabhacharya
AuthorRajendramuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages404
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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