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________________ १२८ सिन्दूरप्रकर 'सत्य से बढकर जगत् में कौन सत्पथ और है । और सब पगडंडियां यह राजपथ की दौड़ है ।।' इस जगत् में सत्य से बढ़कर अन्य कोई सत्पथ नहीं है। उस पर चलने " का तात्पर्य है-राजपथ पर चलना। जो व्यक्ति सत्य को छोड़कर असत्य को स्वीकार करता है वह राजपथ को छोड़कर पगडंडियों पर चलता है। पगडंडियां कंटकाकीर्ण और भटकाने वाली होती हैं। वे निश्चित रूप से किसी को अपने लक्ष्य तक नहीं पहुंचा सकती। सत्य के राजपथ पर चलने वाला निश्चित ही अपनी मंजिल को पा लेता है। जैन आगम प्रश्नव्याकरणसूत्र में सत्य की महिमा का विशद वर्णन है। उसकी महाशक्ति का परिचय कुछ-एक अंशों में इस प्रकार है• सत्य के प्रभाव से दिग्भ्रान्त बने हुए पोत महासमुद्र के मध्य में भी स्थिर रहते हैं, डूबते नहीं। . सत्यवादी मनुष्य घोर वध, बन्ध, अभियोग और वैर से मुक्त हो जाते हैं। वे शत्रुओं के मध्य जाकर भी निर्दोष लौट आते हैं। जो सत्यवचन में रत हैं उनका देव भी सान्निध्य करते हैं। • सत्यवादी पर्वत की मेखलाओं से गिराए जाने पर भी बच जाते हैं, मरते नहीं। • सत्यवचन में रत व्यक्तियों को अग्नि, पानी, शस्त्र तथा अन्यान्य उपद्रवों का भय नहीं रहता। इस प्रकार सत्य-महिमा के ऐसे अनेक उदाहरण हैं जो आगम ग्रन्थों में यत्र-तत्र विखरे हुए हैं। ___ काव्यप्रणेता सूरीश्वर सोमप्रभ ने भी प्रस्तुत प्रकरण में सत्य की महिमा का मंडन किया है। उसका आधार आगमग्रन्थ ही है। ग्रन्थकार ने सत्यमहिमा के अतिरिक्त असत्यवचन के दुष्परिणामों का भी सोदाहरण उल्लेख किया है। वे कहते हैं-असत्यवचन यश को वैसे ही नष्ट कर देता है, जैसे वन की अग्नि अरण्य को। मिथ्यावचन वैसे ही दुःख की उत्पत्ति का कारण बनता है, जैसे जल वृक्षों की उत्पत्ति का। असत्य में उसी प्रकार तप और संयम की बात नहीं होती, जैसे सूर्य के आतप में छाया। सत्य के मार्ग पर चलना कठिन होता है, उसमें अनेक बाधाएं भी व्यक्ति को विचलित करने का प्रयत्न करती हैं। किन्तु जो व्यक्ति उन बाधाओं को चीर कर आगे बढ़ जाता है वह कुन्दन की भांति निखर जाता है, सत्य में स्थित हो जाता है। गौतम कुलक में कहा है Jain Education International For Private & Personal Use Only ___www.jainelibrary.org
SR No.003217
Book TitleSindurprakar
Original Sutra AuthorSomprabhacharya
AuthorRajendramuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages404
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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