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________________ १२७ अवबोध-११ में चला जाता है वह सब भयों से मुक्त हो जाता है। इसलिए नीतिकार कहते हैं- 'सत्ये नास्ति भयं किञ्चित्'–सत्य में किंचित् भी भय नहीं होता। इन्हीं शब्दों में पाश्चात्य विचारक रस्किन ने कहा- 'जो सत्य को अपने हृदय में प्रतिष्ठित कर लेता है, उसे कदापि डरने की जरूरत नहीं है। वह सर्वदा अजेय रहता है।' जीवन के हर मोड़ पर सत्य की आवश्यकता होती है। सत्य को स्वीकार करने का अर्थ है-भगवान की ओर मुड़ना। कविमानस ने इसी प्रसंग को स्पष्ट करते हुए लिखा'अर्थ सत्य रो वास्तविक, प्रकृतसरलता जाण। शुद्ध सरलता में सदा, बसे सत्य भगवान।। पढ्या लिख्या तर्का मझै, करे सत्य री खोज। रच-रच कर पोथ्यां करे, व्यर्थ जगत् में बोझ।।' जहां प्रकृति की सरलता, शुद्धता होती है वहीं वास्तव में सत्य होता है, वहीं भगवान का निवास होता है। जो व्यक्ति तर्क और बुद्धि के स्तर पर सत्य को खोजने का प्रयत्न करते हैं और ग्रन्थों का निर्माण करते हैं, वे केवल इस जगत् में भारभूत हैं। इसलिए निष्कर्ष के रूप में कहा जा सकता है सत्य सर्वोत्कृष्ट है। जो सर्वोत्कृष्ट है वही सत्य का स्वरूप है। आज हम जिस जगत् में जी रहे हैं वहां असत्य का स्वर बुलन्द है और सत्य का स्वर मन्द है। व्यक्ति का मानना है कि इस संसार में असत्य के बिना जीया नहीं जा सकता। इसलिए वह असत्य की वैसाखी के सहारे चला जा रहा है, सत्य को दरकिनार कर रहा है। जिज्ञासा होती है, ऐसा क्यों? जब कि भगवान महावीर ने 'सच्चं भयवं'–सत्य को भगवान कहा है, 'सच्चं लोयम्मि सारभूयं' -सत्य को लोक में सारभूत कहा है। गौतमकुलक में 'सरणं तु सच्च'-सत्य को शरण कहा है। यदि सत्य भगवान है, सत्य सारभूत है, सत्य शरण है तो क्या व्यक्ति असत्य को अपना कर अपने भगवान को नहीं ठुकरा रहा है? क्या वह असत्य बोलकर निस्सार का संचय नहीं कर रहा है? क्या वह सत्य की शरण छोड़कर अशरण में तो नहीं जा रहा है? मनुष्य अपने स्वार्थ के लिए, अर्थ की अंधी दौड़ में क्या कुछ नहीं करता? वह उनके लिए अपने भगवान को भी बेच देता है, असार वस्तु को भी अपना लेता है और पराई शरण में भी चला जाता है। पूज्य गुरुदेव तुलसी ने सत्य-महिमा का यशोगान करते हुए लिखा है Jain Education International For Private & Personal Use Only ___www.jainelibrary.org
SR No.003217
Book TitleSindurprakar
Original Sutra AuthorSomprabhacharya
AuthorRajendramuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages404
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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