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सत्य प्रकरण
११.अवबोध
महात्मा गांधी ने कहा था-'सत्य एक विशाल वृक्ष है। ज्यो-ज्यों उसकी सेवा की जाती है, त्यों-त्यों उसमें अनेक फल आते हुए नजर आते हैं। उनका कभी अन्त नहीं होता।'
सत्य की साधना करना एक दुष्कर तप है। इसलिए नीतिकार कहते हैं-- 'सत्यं चेत् तपसा च किम्'-यदि एक सत्य साध लिया जाता है तो अन्य तपस्या से क्या? सत्य में सभी तपस्याओं का समावेश हो जाता है। संत तुलसीदास ने लिखा
_ 'सांच बराबर तप नहीं, झूठ बराबर पाप।
जाके हिरदे सांच है, ताके हिरदे आप।।' जिसके हृदय में सत्य का निवास होता है उसी के हृदय में भगवान बसते हैं। इसलिए सत्य के बराबर कोई तप नहीं है और झूठ के बराबर कोई पाप नहीं है। इसी तथ्य का प्रकारान्तर से महाभारत में भी उल्लेख मिलता है- 'नास्ति सत्यात् परो धर्मो, नानृतात् पातकं परम्'-सत्य से बढ़कर अन्य कोई धर्म नहीं है और झूठ से बढ़कर कोई पाप नहीं है। इसलिए सत्य धर्म है, तप है, योग है, सनातन ब्रह्म है और उत्कृष्ट यज्ञ है। सब कुछ सत्य में ही प्रतिष्ठित है। इस संसार में 'सत्यमेव जयते नानृतम्'-'सत्य की ही विजय होती है, असत्य की नहीं। इसी प्रसंग में गांधीजी ने कहा था-'जिसकी श्रद्धा हमेशा सत्य की विजय में रहती है उसके शब्दकोष में 'हार' शब्द मिल ही नहीं सकता।' सत्य का सबसे बड़ा अभिनन्दन है-सत्य पर चलना। सत्य का पालन करने वाला दुनिया का सबसे बड़ा मालिक होता है।
ग्रीस के तत्त्ववेत्ता प्लेटो ने कहा था- 'सत्यं शिवं सन्दरम।' शिव और सुन्दर के मूल में सत्य का होना परम आवश्यक है। कोरा शिव अथवा कोरा सुन्दर तब तक मन को अच्छा नहीं लगता जब तक उसमें सत्य का प्रवेश न हो।
शास्त्रों में सत्य को शरण कहा गया है। जो व्यक्ति सत्य की शरण
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