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________________ १२४ सिन्दूरप्रकर औषधिबल, अटवी के मध्य गमन करने वालों के लिए सार्थ। ज्ञानार्णव में अहिंसा की स्तुति में कहा गया 'अहिंसैव जगन्माताऽहिंसैवानन्दपद्धतिः। अहिंसैव गतिः साध्वी, श्रीरहिंसैव शाश्वती।।' अहिंसा ही जगत् की माता है, अहिंसा ही आनन्द का मार्ग है, अहिंसा ही उत्तम गति है एवं अहिंसा ही शाश्वत लक्ष्मी है। अहिंसा धर्म का व्यापकरूप है। उसमें सभी धर्म वैसे ही विलीन हो जाते हैं, जैसे नदियां समुद्र में। आज अहिंसा की प्रतिष्ठा होने पर भी संसार में हिंसा का ताण्डव कम नहीं है। चारों ओर बर्बरता, क्रूरता, मार-काट, छीना-झपटी, अमानवीय व्यवहार, हत्या आदि की घटनाएं घटित हो रही हैं। व्यक्ति का सारा ध्यान हिंसा की ओर केन्द्रित है। आज जरूरत है हिंसा के उन कारणों के खोज की, जिनसे मनुष्य हिंसा में व्याप्त होता है अथवा उसके भीतर हिंसाजनक मनोभावों का निर्माण होता है। व्यावहारिकस्तर पर कारणों की खोज की जाए तो आज की मुख्य समस्याएं हैं-बेरोजगारी, भूखमरी, दरिद्रता आदि। इनके वशीभूत होकर मनुष्य हिंसा में उतरता है। मानसिकस्तर पर यदि कारणों की खोज की जाए तो उसमें अनेक अभिमत सामने आते हैं• आनुवंशिकी वैज्ञानिक हिंसा के लिए जीवन को उत्तरदायी मानते हैं। • मनोवैज्ञानिक तथा रसायन वैज्ञानिक मौलिक मनोवृत्ति को हिंसा की जड़ मानते हैं। • परिवेश वैज्ञानिक हिंसा का मूल परिवेश और वातावरण स्वीकार करते हैं। उनका कथन है कि बच्चे को जैसा परिवेश, जैसा वातावरण मिलता है वह वैसा ही सीख जाता है। हिंसाजन्य परिस्थिति अथवा हिंसाजन्य वातावरण बच्चे को हिंसा कराना सिखा देता है और धार्मिक वातावरण बच्चे को धार्मिक बना देता है। • जैन दार्शनिकों का अभिमत है कि हिंसा का मूल कारण है कर्म। जिसका जैसा कर्म–संस्कार होता है वह वैसा ही निर्मित हो जाता है। इस प्रकार नानाविध कारणों में किसी एक कारण को सार्वभौम नहीं कहा जा सकता। जीन भी एक कारण है, परिवेश और मौलिक मनोवृत्ति भी एक कारण है और कर्म भी एक कारण है। अनेक घटकतत्त्व For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org Jain Education International
SR No.003217
Book TitleSindurprakar
Original Sutra AuthorSomprabhacharya
AuthorRajendramuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages404
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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