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अवबोध-१०
१२३ मान्यता का खंडन करते हुए बहुत ही सटीक शब्दों में कहा है-यदि पत्थर पानी में तैरने लग जाए, सूर्य पश्चिम दिशा में उगने लग जाए, अग्नि शीतल हो जाए, पृथ्वी समस्त जगत् के ऊपर भी आ जाए तब भी हिंसा में किसी भी प्रकार और कहीं भी धर्म होने वाला नहीं है। उन्होंने स्पष्ट शब्दों में यह भी कहा जो लोग हिंसा में धर्म कहते हैं वे अग्नि से कमलवन, सूर्यास्त होने पर दिन, सर्प के मुख से अमृत, विवाद से साधुवाद, अजीर्ण से रोगोपशमन और कालकूट विष से जीवन धारण करने की अभिलाषा करते हैं।
जिस प्रकार असंभव को संभव नहीं बनाया जा सकता और अनहोनी में होने की कल्पना को साकार नहीं किया जा सकता उसी प्रकार हिंसा में धर्म को नहीं देखा जा सकता। वह तो मात्र पानी में लकीर खींचने के समान है। यदि हिंसा में धर्म होता तो जल मथने पर भी घी निकल आता। शाश्वत सत्य मनुष्य की मानी हुई मान्यताओं अथवा स्वार्थों की सीमाओं में कभी आबद्ध नहीं होता। वह त्रैकालिक होता है। इसलिए अहिंसा धर्म त्रैकालिक है। __ जैन आगमों में यत्र-तत्र अहिंसा के स्वरूप का विशद वर्णन हुआ है। उसके कुछ उद्धरण इस प्रकार हैं____ 'एस धम्मे धुवे, णिइए सासए'-यह अहिंसा धर्म ध्रुव, नित्य और शाश्वत है।
'अहिंसा निउणं दिट्ठा सव्वभूएसु संजमो'-सब जीवों के प्रति संयम रखना अहिंसा है।
'मेत्तिं भूएसु कप्पए' -सब प्राणियों के प्रति मैत्री रखना अहिंसा है।
'अहिंसा समयं चेव एयावन्तं वियाणिया' -अहिंसा का सिद्धान्त सबसे बड़ा विज्ञान है।
'अत्थि सत्यं परेण परं, नत्थि असत्यं परेण परं'-शस्त्र उत्तरोत्तर तीक्ष्ण होता है। अशस्त्र उत्तरोत्तर तीक्ष्ण नहीं होता, वह एकरूप रहता है। अहिंसा अशस्त्र है। वह सब प्राणियों के प्रति समान रहती है। __जैन आगम प्रश्नव्याकरणसूत्र के छठे अध्ययन में अहिंसा का महिमामंडन विस्तार से मिलता है वह भगवती अहिंसा सभी त्रस-स्थावर प्राणियों का क्षेम करने वाली है। वह प्राणियों के लिए वैसे ही आधारभूत है जैसे भयभीत प्राणियों के लिए शरणस्थल, पक्षियों के लिए गगन, प्यासे प्राणियों के लिए जल, भूखों के लिए भोजन, समुद्र के मध्य जाने वालों के लिए पोत, चतुष्पदों के लिए आश्रयपद, दुःखार्त मनुष्यों के लिए
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