________________
अवबोध-१०
१२१ कड़े से कड़ा उपालम्भ भी दे देते थे।
आज हिंसा के कारण अनेक समस्याएं बढ़ रही हैं। इसी असंयम को ध्यान में रखकर आचारांगसूत्र में कहा गया- 'एस खलु गंथे, एस खलु मोहे, एस खलु मारे, एस खलु णरए।' हिंसा ग्रन्थि है, हिंसा मोह है, हिंसा मृत्यु है, हिंसा नरक है। हिंसा की निष्पत्ति मृत्यु और नरक है, फिर भी मनुष्य हिंसा को नहीं छोड़ पा रहा है। उसका मूल कारण लोभ की वृत्ति है। मनुष्य का सारा ध्यान अर्थ पर केन्द्रित है। अर्थार्जन की पृष्ठभूमि में सुख-सुविधा, बड़प्पन की भावना, अधिक संग्रह करने की मनोवृत्ति आदि जुड़ी हुई हैं। उन्हीं कारणों से व्यक्ति प्राणियों की हिंसा करता है। उनका विस्तृत उल्लेख आचारांगसूत्र में है
• कुछ व्यक्ति रसों में गृद्ध होकर हिंसा करते हैं। • कुछ व्यक्ति शरीर के लिए प्राणियों का वध करते हैं। • कुछ लोग आजीविका-उपार्जन के साधन मांस, चर्म, रक्त, हृदय, पित्त, चर्बी, पंख, पूंछ, केश, सींग, विषाण-हस्तिदन्त, दांत, दाढ़, नख, स्नायु, अस्थि और अस्थिमज्जा के लिए प्राणियों का वध करते हैं। कुछ व्यक्ति प्रयोजनवश तथा कुछ अप्रयोजनवश प्राणियों की हिंसा करते हैं। • कुछ व्यक्ति हास्य, वैर, प्रतिशोध और कामनावश हिंसा करते
• कुछ व्यक्ति (ये मेरे या मेरे स्वजन वर्ग की) हिंसा करेंगे, इस
संभावना से प्राणियों की हिंसा करते हैं अथवा (ये मेरे स्वजन वर्ग की) हिंसा कर रहे हैं, यह सोचकर प्राणियों की हिंसा करते
इस प्रकार इस संसार में निरन्तर हिंसा का चक्र चल रहा है। मनुष्य कायिक हिंसा में तो प्रवृत्त है ही, पर वह मानसिक और वाचिक हिंसा से भी अछता नहीं है। मनुष्य को कायिक हिंसा आवश्यक-अनावश्यकदोनों स्थितियों में करनी पड़ती है, पर मानसिक अथवा भावात्मक हिंसा तथा वाचिक हिंसा का क्रम तो उसके चलता ही रहता है। किसी के प्रति ईर्ष्या, किसी के प्रति अनिष्ट चिन्तन, निषेधात्मक भावों में जीना, परसंपत्ति में मत्सरभाव रखना आदि मानसिक (भावात्मक) हिंसा के ही परिणाम हैं। किसी को गाली देना, कटुशब्दों अथवा अपशब्दों का प्रयोग For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org
Jain Education International