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सिन्दूरप्रकर
सुन सकते हैं जिनके अन्तःकरण में संवेदना होती है, करुणा होती है और जिनमें अहिंसा का अमृतरस छलकता है। हिंसक व्यक्ति सोच ही नहीं सकता कि परहिंसा भी हिंसा होती है। इसी संदर्भ में शेखसादी ने लिखा था-'तुम्हारे पैर के नीचे दबी हई चींटी का वही हाल होता है, जो हाल हाथी के पैर के नीचे दबने से तुम्हारा होता है।' यह आत्मानुभूति, आत्मतुला का अनुभव उसी व्यक्ति को हो सकता है जो आत्मा के स्तर पर जीता है। इसलिए आचारांगसूत्र में कहा गया- 'तमंसि नाम सच्चेव, जं हंतव्वं ति मन्नसि।' तू जिसे मारना चाहता है वह तू ही है अर्थात् उसकी आत्मा और तेरी आत्मा समान हैं। ___जहां हिंसा का भाव होता है वहां क्रूरता की व्याप्ति होती है। उसके बिना हिंसा हो नहीं सकती। आज संसार में हिंसा की समस्या है तो उससे जटिल समस्या है क्रूरता की।
यह भी उतना ही सत्य है कि एक देहधारी प्राणी हिंसा से सर्वथा मुक्त नहीं हो सकता। उसे अपने जीवन-यापन के लिए हिंसा का आश्रय लेना होता है। हिंसा होना एक बात है, जान बूझकर किसी की हिंसा करना दूसरी बात है। कार्य के आधार पर हिंसा को भी तीन भागों में विभक्त किया जा सकता है-आरम्भजा, विरोधजा और संकल्पजा। गृहस्थ जीवन चलाने के लिए कृषि, व्यापार आदि में जो हिंसा होती है वह आरम्भजा हिंसा है। शत्रु द्वारा आक्रमण किए जाने पर प्रतिरक्षा के लिए जो हिंसा की जाती है वह विरोधजा हिंसा है। मानसिक संकल्पपूर्वक किसी जीव का वध करना संकल्पजा हिंसा है। तीनों प्रकार की हिंसा में आज संकल्पजा हिंसा मनुष्य के लिए अभिशाप बन रही है। आरम्भजा और विरोधजा हिंसा अर्थहिंसा (अनिवार्य हिंसा) है और संकल्पजा हिंसा अनर्थहिंसा (निरर्थक हिंसा) है। एक गृहस्थ के लिए अनिवार्य हिंसा से बचना अशक्य है, पर साधु के लिए वह हिंसा भी सर्वथा त्याज्य होती है। गृहस्थ उस हिंसा से सर्वथा उपरत नहीं हो सकता। मन में तब आश्चर्य होता है, पीड़ा भी होती है जब मनुष्य निष्प्रयोजन और निष्कारण ही निरर्थक हिंसा में प्रवृत्त होता है। इस अनावश्यक और निरर्थक हिंसा के कारण न जाने कितने-कितने निरपराध, निरीह और मूक प्राणी अकारण ही बलिवेदी पर चढ़ जाते हैं। महात्मा गांधी अहिंसा के प्रयोक्ता थे। उन्होंने निरर्थक हिंसा को कभी प्रश्रय नहीं दिया। कभी-कभी गांधीजी
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