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________________ अहिंसा प्रकरण १०.अवबोध मनोविज्ञान ने मनुष्य की चौदह मौलिकवृत्तियों को स्वीकार किया है। उनमें जिजीविषा भी एक मूलप्रवृत्ति है। दसवैकालिकसूत्र में कहा गया- 'सब्वे जीवा वि इच्छंति जीविउं न मरिज्जिउं'–सभी जीव जीना चाहते हैं, मरना कोई नहीं चाहता। यह आगमवाक्य उसी जिजीविषा का एक पुष्ट प्रमाण है। व्यक्ति स्वयं तो जीना चाहे और वह दूसरों को मारने का प्रयत्न करे, वह अहिंसा कैसे हो सकती है? गांधीजी ने कहा था'उस जीवन को नष्ट करने का किसी को कोई अधिकार नहीं, यदि उसमें उसको बनाने की शक्ति नहीं है।' आत्मतुला की दृष्टि से सभी प्राणी समान हैं। सभी में चेतना है। एक चींटी से लेकर हाथी तक की आत्मा को स्थूलता अथवा सूक्ष्मता की दृष्टि से बांट कर नहीं देखा जा सकता। आत्मा का प्रकाश चींटी के छोटे-से शरीर में भी सिमट सकता है, वही प्रकाश हाथी के विशाल शरीर में भी फैल सकता है। यह संकोच-विस्तार आत्मशक्ति में निहित है। किसी जीव को मारने का किसी को अधिकार नहीं है, फिर भी वह दूसरों को मारता है, सताता है, उनको अपने अधीन बनाने का प्रयत्न करता है, उन पर हुकूमत करता है और उनकी सत्ता का हनन करता है। __ भारतीय संविधान में प्रत्येक मनुष्य को जीने का समान अधिकार है। उस अधिकार का उल्लंघन होने पर व्यक्ति कानून की दृष्टि से अपराधी माना जाता है और अपराध सिद्ध होने पर वह दंडित भी होता है। आश्चर्य है कि वह अधिकार पशु-पक्षी जगत् तथा वनस्पतिजगत् से सर्वथा अछूता है। वह वहां लागू ही नहीं होता। मनुष्य जब चाहे जैसा चाहे कभी भी उनके साथ अमानवीय व्यवहार कर सकता है। वहां मनुष्य की करुणा सूख जाती है और क्रूरता हावी हो जाती है। क्या पशु-पक्षियों को जीने का अधिकार नहीं है? क्या उनमें आत्मा नहीं है? क्या उन्हें सुख प्रिय नहीं है? क्या उनका जीवन दूसरों के लिए है? उन निरीह मूक प्राणियों की पुकार सुने भी तो कौन सुने? उनकी पुकार को वे ही व्यक्ति Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003217
Book TitleSindurprakar
Original Sutra AuthorSomprabhacharya
AuthorRajendramuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages404
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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