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________________ अवबोध-९ ११७ कारण उस समय दक्षिण भारत जैनों का प्रमुख केन्द्र बना। संघ अनेक गुणों का आकर है, अनेक विशेषताओं का पुंज है। इसलिए व्यक्ति 'संघं शरणं गच्छामि'-संघ की शरण को स्वीकार करता है। संघ व्यक्ति को प्रभावित करता है तो व्यक्ति संघ को प्रभावित करता है। दोनों के योग से जैनशासन की प्रभावना होती है। जहां संघ है वहां आचार्य का नेतृत्व होता है। आचार्य मुख्यतया दो कार्य सम्पादित करते हैं--परम्परा की रक्षा और संघ का हित। संघहित के सामने किसी व्यक्तिविशेष के प्रति प्रियता-अप्रियता का तारतम्य भी समाप्त हो जाता है। संघ में शक्ति होती है। जहां शक्ति होती है वहां तेजस्विता का विकास होता है। संघ में आने वाला हर कोई अपने जीवन के लिए अग्रिम साईं ले लेता है। वह अपने भविष्य के प्रति आश्वस्त और निश्चिन्त हो जाता है। संघ संघ के सदस्यों के लिए सेवा, सहयोग और साधना में योगभूत बनता है। वहां प्रमाद के प्रति वारणा और संघहित कार्यों के लिए सारणा और प्रोत्साहन का द्वार खुला रहता है। जिस प्रकार वृक्ष पक्षियों का और पानी मछलियों का आश्रयस्थल है वैसे ही संघ शरणागत प्राणियों को चित्तसमाधि उपजाने वाला आधारस्थल है। संघ में शक्ति, भक्ति, अनुरक्ति और युक्ति की सतत धारा प्रवाहित होती है। ऐसे शक्तिसंपन्न संघ को तीर्थंकर अपना श्रद्धायुक्त नमस्कार करते हैं। आचार्य पुनः पुनः उसका गुणानुवाद करते हैं और सन्तजन अपनी कृतज्ञता ज्ञापित कर उसका बहुमान बढ़ाते हैं। वह संघ किसके लिए प्रीतिकर, स्तुत्य, श्लाघ्य और गौरवान्वित नहीं होगा? जैन आगम नन्दीसूत्र में संघ को आठ उपमाओं से उपमित किया गया है-संघ एक रथ है, चक्र है, नगर है, पद्म है, चन्द्रमा है, सूर्य है, समुद्र है, मेरु है। उसमें इन उपमाओं से संघ की स्तुति की गई है, जैसे-- . जिसके शीलरूप ऊंची पताका है, तप नियमरूप जिसके दो घोडे हैं, स्वाध्यायरूप जिसका नन्दीघोष है, ऐसे संघरूप रथ का कुशल हो। जो संघ प्रधान ज्ञानरूपी वैडूर्य रत्न से दीप्यमान, कान्त, विमल चूला वाला है उस संघ महामन्दराचल को मैं विनय-प्रणत होकर वन्दना करता हूं। काव्यरचयिता आचार्य सोमप्रभ ने भी प्रस्तुत प्रकरण में संघ की महिमा का अनेक उपमाओं से वर्णन किया है-जैसे रोहण पर्वत रत्नों Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003217
Book TitleSindurprakar
Original Sutra AuthorSomprabhacharya
AuthorRajendramuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages404
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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