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सिन्दूरप्रकर ही संघ में आगार धर्म और अनगार धर्म-इन दो श्रेणियों का वर्गीकरण किया गया। जो साधक संघ में दीक्षित होते हैं वे साध-साध्वी अनगार धर्म का पालन करते हैं। शेष श्रावक-श्राविकाएं आगार धर्म को स्वीकार करते हैं। संघ के विकास, विस्तार, उन्नयन तथा स्थायित्व में जिस प्रकार साधु-साध्वियों की अहं भूमिका होती है वैसे ही श्रावक-श्राविकाओं की भूमिका भी कम महत्त्वपूर्ण नहीं है। वे संघ के प्रति वफादार, कर्तव्यनिष्ठ, समर्पित और सेवापरायण होते हैं। जैन आगम स्थानांगसूत्र में श्रावकश्राविकाओं को 'अम्मापितिसमाणे', 'भातिसमाणे', 'मित्तसमाणे' -मातापिता के समान, भाई के समान तथा मित्र के समान माना गया है। वे इहलोक-परलोक के हित को साधने वाले होते हैं। इसलिए उन्हें साधुसाध्वियों का आश्रय-स्थल भी कहा जाता है। आचार्य भिक्षु ने साधुओं और श्रावकों को रत्नों की माला से उपमित किया है। साधु-साध्वी बड़ी माला होते हैं और श्रावक-श्राविकाएं छोटी माला। इस प्रसंग में आचार्य भिक्षु कहते हैं___ 'साध नै श्रावक रतनां री माला, एक मोटी दूजी नान्ही रे।
__ गण गथ्यां च्यारुं तीरथ नां, अव्रत रह गई कानी रे ।।' जिनशासन की एकसूत्रता इस एक गाथा से सिद्ध होती है
'अन्नन्नदेसजाया अन्नन्नाहारड्डियसरीरा ।
जिणसासणमणपत्ता सब्वे ते बांधवो मणिया ।।' भिन्न-भिन्न देशों में उत्पन्न और भिन्न-भिन्न आहार से पोषित शरीर वाले साधक जब जिनशासन में प्रव्रजित हो जाते हैं तब वे सब परस्पर बन्धु बन जाते हैं।
धर्मसंघ सभी को समान अधिकार और समान अवकाश देता है। उसमें लिंग-जाति और सम्प्रदाय की कोई भेदरेखा नहीं होती। संघप्रभावना में धार्मिक वात्सल्य एक ऐसा सूत्र है जो मानवमात्र को एकसूत्र में पिरोने का कार्य करता है। वह ऐसा आत्मीय व्यवहार है जिसमें एक ही धर्म में श्रद्धा रखने वाले लोगों में परस्पर भाईचारे का स्वरूप देखा जा सकता है। जब वह संघरूपी कल्पवृक्ष भ्रातृत्व भावना से अभिसिंचित होता है तब वह और अधिक फलता-फूलता है। दक्षिण भारत उसी धार्मिक वत्सलता का एक जीवन्त उदाहरण है। वहां जैन धर्म का विस्तार उसी वत्सलता के कारण हुआ था। जैनों ने अन्नदान, शिक्षादान, औषधदान और अभयदान के द्वारा जन-जन को उपकृत किया था। उसके
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