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९. अवबोध
संस्कृत-साहित्य में एक सुन्दर सूक्ति है- 'अनाश्रयाः न शोभन्ते पण्डिता वनिता लताः । ' पंडित, स्त्री और लता बिना आश्रय के शोभित नहीं होते। उनको अपना अस्तित्व रखने के लिए किसी का आलम्बन चाहिए। ठीक इसी सूक्ति के अनुरूप ऐसे भी कहा जा सकता है - 'संघं विना न शोभन्ते व्रतिन्यो व्रतिनो गृहाः ।' संघ के बिना साधु-साध्वी तथा श्रावक-श्राविका शोभित नहीं होते। उनके जीवन का आधार संघ है। जो फूल वृक्ष की टहनी पर खिलता है उसके विकास का आधार वृक्ष होता है। यदि वह अपने आलम्बन से बिछुड़ जाता है तो उसका अस्तित्व मिट्टी में मिल जाता है।
संघ प्रकरण
संघ जीवन-यापन का बहुत बड़ा आलम्बन है। उसके बिना जीवन शून्य होता है। जैन तीर्थंकरों ने व्यक्तिगत साधना को बहुत महत्त्व दिया, किन्तु संघबद्ध साधना को भी उन्होंने ही पुरस्कृत किया । व्यक्तिगत साधना का अपना मूल्य है और संघबद्ध साधना का अपना मूल्य है। कुछ अर्थों में सामूहिक साधना व्यक्तिगत साधना से अधिक कार्यकर और अधिक प्रभावशाली होती है। आज का वैज्ञानिक भी सामूहिकता पर अधिक बल देता है । सामूहिक ध्यान और सामूहिक जाप अधिक ऊर्जा-संचय का हेतु बनता है। वैज्ञानिक मानते हैं कि अनेक साधकों की ऊर्जाओं के एक ही काल और एक ही स्थान में मिलने से सारा वातावरण ऊर्जामय, शक्तिशाली बन जाता है।
व्यक्तिगत साधना अर्थात् संघमुक्त साधना सर्वसुलभ और जनसाधारण के लिए नहीं हो सकती । उसके लिए अत्यधिक साहस, धैर्य, प्रबलपुरुषार्थ, शारीरिक संहनन तथा अनगिन परीषहों को झेलने की क्षमता का विकास अनिवार्य होता है। ऐसी साधना हर किसी के सामर्थ्य से बाहर होती है। वैसी साधना जिनकल्पी मुनि ही कर सकते हैं।
संघबद्ध साधना के लिए सबको खुला अवकाश है। हर व्यक्ति अपने सामर्थ्य के अनुसार उसमें साधना कर सकता है । उस सामर्थ्य के अनुसार
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