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सिन्दूरप्रकर
वह अपने हित-अहित को भलीभांति देख पाता है। विवेक के अभाव में सारा गुड़गोबर हो जाता है।
दूसरा विवेक-चक्षु है - वीतराग के सिद्धान्त । जिन व्यक्तियों ने सर्वज्ञों के करुणारस से परिपूर्ण सिद्धान्तों को नहीं सुना उनका मनुष्य-जीवन निष्फल है, उनका चित्त निरर्थक है, उनके कान अर्थहीन हैं। वे गुण और दोष का विवेक नहीं कर सकते। वे निश्चित ही नरकरूपी अन्धकूप में पड़ते हैं। उन्हें कभी मुक्ति नहीं मिल सकती ।
तीसरा विवेक-चक्षु है - वीतराग का शासन | जिनभगवान का शासन करुणारूपी वस्तु के लिए आपण के समान है। उस आपण से प्रत्येक मुमुक्षु प्राणी करुणा को प्राप्त कर सकता है। जो व्यक्ति जैनदर्शन की अन्य दर्शनों - बौद्ध, नैयायिक, सांख्य, वैशेषिक, जैमिनीयदर्शन के साथ तुलना करते हैं, एक तराजू में सबको बराबर रखते हैं तो वे अमृत को विष से, जल को अग्नि से, प्रकाश को अन्धकार से, मित्र को शत्रु से, पुष्पमाला को सर्प से, चिन्तामणि रत्न को ढेले से और चन्द्रमा की ज्योत्स्ना को ग्रीष्म ऋतु के आतप से तोलना चाहते हैं।
अर्हतों के वचन, सिद्धान्त और उनका शासन - सभी दूषणों से मुक्त हैं। वे यथार्थ और सत्य हैं, विसंवाद से रहित हैं, इसलिए वे विवेक-चक्षु कहलाते हैं। प्रतिपत्ति के रूप में प्रस्तुत प्रकरण का प्रतिपाद्य है• अर्हतों के सिद्धान्त और वचन ही वास्तव में विवेक-चक्षु हैं । विवेक-चक्षु के बिना जीवन में भटकाव, अन्धेरा है । उसको प्राप्त किए बिना मनुष्य का जीवन निष्फल है।
• विवेक - चक्षु को पाकर भी जब तक उसे समझा न जाए अथवा जीवन में उतारा न जाए तब तक वह विवेक ज्ञानगत विवेक ही रहता है, जीवनोपयोगी नहीं बनता ।
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