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अवबोध-८
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पुरुष ने विवेक को प्राप्त कर लिया उस व्यक्ति के गुण भी वैसे ही अत्यधिक चमकते हैं जैसे कि सोने में जड़े हुए रत्न।
आज मनुष्य की सबसे बड़ी समस्या है-विवेक-विकलता। विवेकशून्यता के कारण वह निर्णय नहीं कर पाता कि उसके लिए अच्छा क्या है और बुरा क्या है ? हित क्या है, अहित क्या है? इसी प्रसंग में किसी कवि ने कहा- 'फूटी आंख विवेक की, लखै न सन्त-असन्त।' जिसके विवेक की आंख फूट जाती है वह सन्त-असन्त की पहचान नहीं कर सकता। इसलिए नीतिवाक्य में कहा गया- 'एको हि चक्षुरमलः सहजो विवेकः।' विवेक एक स्वाभाविक निर्मल नेत्र है। उसके बिना ज्ञान नहीं होता। यदि प्राणीमात्र में विवेक की चेतना जाग जाए, यदि वह विवेक की आंखों से देखना सीख जाए तो उसे यथार्थ-अयथार्थ, कृत्य-अकृत्य के बीच एक भेदरेखा खींचने का सूत्र हस्तगत हो जाता है। इसी संदर्भ में शेक्सपीयर ने कहा था-'अपने विवेक को अपना शिक्षक बनाओ। शब्दों का कर्म से और कर्मों का शब्दों से मेल कराओ। तभी तुम जीवन में सफल हो सकते हो।'
शेखसादी ने कहा था-'विवेक के नियमों को सीखकर भी जो उन्हें जीवन में नहीं उतारता वह अपने खेत में परिश्रम करके भी बीजों का वपन नहीं करता।' संत कबीर ने लिखा
'समझा-समझा एक है, अनसमझा सब एक ।
समझा सो ही जानिए, जाके हृदय विवेक।।' जिसके हृदय में विवेक है वही समझदार व्यक्ति जाना जाता है। अर्हतों ने जिन सिद्धान्तों का प्रतिपादन किया, जो प्रवचन दिया, यदि जीवन में उनको समझने का कभी प्रयत्न नहीं किया, उनका कभी आचरण नहीं किया तो विवेक की आंख मूंदी की मुंदी रह जाती है। विवेक मनुष्य की तीसरी आंख है तो समझना और आचरण करना मनुष्य का प्रकाश है। तात्पर्यार्थ में सिद्धान्त को उचित प्रकार से समझकर उसे व्यवहृत करना ही विवेक का फल है।
ग्रन्थप्रणेता आचार्य सोमप्रभ ने प्रस्तुत प्रकरण में अर्हतों द्वारा प्रणीत अथवा निःसृत कुछेक विवेक-चक्षुओं का निरूपण किया है। उनमें प्रथम विवेक-चक्षु है-वीतराग के वचन। जो व्यक्ति जिनवचनरूपी चक्षुओं से विकल होता है वह सुदेव-कुदेव, सुगुरु-कुगुरु, धर्म-अधर्म, गुणवान्गुणविहीन, करणीय-अकरणीय कार्य में भेद नहीं कर पाता और न ही
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