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जिनमत प्रकरण
८.अवबोध
‘णाणं पयासयरं' - ज्ञान प्रकाश करने वाला है। यह सत्य तभी सार्थक हो सकता है जब भीतर की आंख खुल जाती है। प्रकाश के बिना आंखों की उपयोगिता और आंखों के बिना प्रकाश का मूल्य ही क्या है? दोनों एक दूसरे के पूरक हैं। दोनों एक दूसरे के बिना असहाय भी हैं। तीर्थंकर ज्ञान का प्रकाश भी करते हैं और भीतर के चक्षुओं का भी उद्घाटन करते हैं। जैन आगमों में अर्हतों को 'चक्खूदयाणं' कहा गया है। जिनभगवान चक्षुप्रदाता होते हैं। वे चक्षु क्या हैं? अर्हतों के द्वारा प्रणीत सिद्धान्त तथा उनके द्वारा कथित वाणी ही मानवमात्र के लिए चक्षु होते हैं। ___मनुष्य बाहरी आंखों से देखता है, वस्तुजगत् को जानता है। कभीकभी व्यक्ति अपनी ही आंखों से धोखा भी खा जाता है। वे यथार्थ ज्ञान का बोध नहीं करा पाती। उस ज्ञानबोध में मनुष्य की मन्ददृष्टि, दृष्टिभ्रम अथवा दूरी कोई भी बाधक बन सकती है। उसके कारण वह रज्जु में सर्प और सर्प में रज्ज का आरोपण कर लेता है, कभी वह स्थाणु में स्तम्भ और स्तम्भ में स्थाणु को जान लेता है और कभी सीप में चांदी और चांदी में सीप का आभास कर लेता है। मनुष्य की बुद्धि का यह विपर्यास ही यथार्थ के अवबोध में बाधक बनता है।
तीर्थंकर आप्तपुरुष होते हैं। वे सत्य के आलोक से आलोकित होते हैं। उनके मुख से जो वचनामृत निःसृत होते हैं, वे जिस सिद्धान्त का प्रतिपादन करते हैं, वे विवेक-चक्षुओं को खोलने वाले और विवेक-चेतना का जागरण करने वाले होते हैं। वीतराग के वचन अथवा सिद्धान्त विवेक की आंख का ही उद्धाटन करते हैं।
विवेक मनुष्य का तृतीय नेत्र है। उसे पाकर व्यक्ति कहीं भी दिग्भ्रमित नहीं होता। वह हेय को छोड़ देता है और उपादेय को ग्रहण कर लेता है। विवेक मनुष्य का वह दीपक है जो चंचलतारूप वायु से अकम्प होकर हृदय के मन्दिर में समस्त इच्छित वस्तुओं को प्रकाशित करता है। जिस
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