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अवबोध-७
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को पाना सहज-सरल कार्य नहीं है। यह भी उतना ही सच है कि एक सद्गुरु को किसी सुशिष्य का मिलना भी उतना ही कठिन, कठिनतम है जितना कि एक शिष्य को सद्गुरु का मिलना । दोनों का मणिकांचन योग दुर्लभतम योग होता है।
कृतिकार आचार्य सोमप्रभ ने प्रस्तुत प्रकरण में आत्महितैषी शिष्य को अपना अमूल्य परामर्श देते हुए कहा है- यदि तुम आत्महित चाहते हो तो तुम उस गुरु की खोज करो, जो स्वयं धर्म के मार्ग पर चलते हैं तथा दूसरों को भी निष्कामभाव से उसी पथ पर चलाते हैं। जो स्वयं संसार-समुद्र से तरते हैं तथा दूसरों को भी भवसागर से पार लगाते हैं। गुरु की पहचान कराने के लिए उन्होंने गुरु की कुछेक कसौटियों का भी निर्धारण किया है। वे कहते हैं कि गुरु वह होता है
• जो मिथ्याज्ञान का नाश करता है।
आगमों के अर्थ का बोध कराता है।
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सुगति-दुर्गति के मार्ग के हेतुभूत पुण्य-पाप को बताता है।
• कृत्य अकृत्य के भेद का ज्ञान देता है।
धर्म-अधर्म के मर्म को प्रकट करता है।
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• नरक - कुहर में पड़ते हुए प्राणियों की रक्षा करता है । ग्रन्थकार सूरीश्वर ने गुरु के अनुशासन को सर्वोपरि माना है। वही एकमात्र संसार भ्रमण को रोक सकता है। जो शिष्य गुरु के अनुशासन के बिना ध्यान, समस्त विषयों का त्याग, तप का आचरण, भावना का अभ्यास, इन्द्रियों का निग्रह तथा आगमों का पठन करता है वह अपनी अर्थसिद्धि में वैसे ही निष्फल होता है जैसे सेनापति के बिना सेना । इसलिए शिष्य का समस्त ज्ञान-ध्यान आदि गुरु के अनुशासन में ही शोभित होता है। जो शिष्य कार्यसिद्धि चाहता है उसे बिना किसी झिझक गुरु के अनुशासन को प्रीतिपूर्वक स्वीकार करना ही श्रेयस्कर है। प्रस्तुत प्रकरण की फलश्रुति है
गुरु- अर्हता को वही व्यक्ति प्राप्त कर सकता है, जो गुरुता की कसौटियों पर खरा उतरता है ।
• गुरु का अनुशासन ही सर्वसिद्धिप्रदायक होता है।
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