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सिन्दूरप्रकर
गुरु भी यदि अभिमानी हो, उसे कार्य अकार्य का बोध न हो और वह भी यदि उत्पथ पर चलता हो तो ऐसे गुरु का परित्याग कर देना चाहिए।
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योगशास्त्र में भी गुरु के लक्षणों का उल्लेख हुआ है'महाव्रतधरा धोरा भैक्षमात्रोपजीविनः । सामायिकस्था धर्मोपदेशका गुरवो
मताः । । ' जो अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य एवं अपरिग्रह - इन पांचों महाव्रतों का पालन करने वाले हैं, जो धैर्यवान् हैं, शुद्ध भिक्षा से जीवन का निर्वाह करने वाले हैं, जो संयम में स्थिर रहने वाले तथा धर्म का उपदेश देने वाले हैं वे गुरु माने गए हैं।
इस प्रकार गुरु-लक्षणों से युक्त होकर जो गुरुता की कसौटी पर खरा उतरता है वही व्यक्ति गुरु की गुरुता को प्राप्त कर सकता है । आज संसार में गुरुडम की बाढ - सी आई हुई है। कोई गुरुता की कसौटी पर खरा उतरे या न उतरे पर वह अपने आपको अवश्य ही गुरु कहलाना चाहता है। वे गुरु जनता का क्या भला करेंगे? जो परमार्थ की ओट में अपने स्वार्थ को सिद्ध करते हैं, धर्म के बहाने लोगों को दिग्भ्रान्त करते हैं और लोगों को धोखा देकर सुख-सुविधाओं तथा विलासिता को भोगते हैं। दुनिया में ऐसे गुरुओं की भी कमी नहीं है और उनके चंगुल में फंसने वाले भक्तजनों की संख्या भी कम नहीं है। ऐसे गुरु किसी का हित नहीं साध सकते। वे स्वयं तो इस भवसागर में डूबते ही हैं, किन्तु दूसरों को भी डूबोते हैं। इसलिए कहा गया
'गुरु लोभी चेला लालची, दोनों डूबै बापड़ा, बैठ
दोनों खेले दांव । पत्थर की नांव ।।'
एक शिष्य को सद्गुरु की खोज करने के लिए कितना - कितना प्रयत्न करना पड़ता है, वर्षों-वर्षों तक जीवन को खपाना पड़ता है, गुरु- अर्हता का अंकन करना होता है तब कहीं सौभाग्य से गुरु की प्राप्ति होती है या नहीं भी होती, कहना कठिन है। इसलिए सद्गुरु की खोज और सद्गुरु का मिलना - दोनों दुर्लभ हैं। इसी प्रसंग में कविमानस संत कबीर ने ठीक ही कहा था
'शीष दियां यदि गुरु मिले तो भी सस्ता जान । '
यदि गुरु की प्राप्ति प्राणों के उत्सर्ग से होती है तो भी वह सस्ती है । पता नहीं वह प्राप्ति कितना बड़ा बलिदान मांगती हैं ? इसलिए सुगुरु
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