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अवबोध-७
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व्यक्ति अपने आश्रित हर किसी को धन-दौलत, जमीन-जायदाद तथा स्वामित्व आदि सब कुछ सौंप सकता है, किन्तु ज्ञानचक्षुओं का उद्घाटन गुरु के बिना नहीं हो सकता। इसलिए गुरु का प्रथम लक्षण है--ज्ञानप्रकाश की चेतना से युक्त होना। ___गुरु का दूसरा लक्षण है-अहंकार से विनिर्मुक्त। जिसमें अहंकार का थोड़ा-सा भी लेश होता है उसमें गुरुता का समावेश नहीं हो सकता। वहां केवल अपना राजसी ठाठ-बाट, वैभव और सत्ता का बल ही सब कुछ होता है, दूसरों का हित गौण हो जाता है। अहंकार के नशे में प्रेम की गली इतनी अधिक संकरी हो जाती है कि उसमें या तो प्रेम टिक सकता है या फिर अहंकार। उसमें दो नहीं समा सकते। इसी प्रसंग में सन्त कबीर ने यथार्थ ही कहा है
जब मैं था तब गरु नहीं, अब गुरु हैं मैं नांहि।'
'प्रेमगली अति सांकरी ता में दो न समाहि।। जैसे एक म्यान में दो तलवारें नहीं रह सकती वैसे ही 'मैं' के साथ गुरु नहीं रह सकता। जहां गुरु है वहां मैं नहीं होता और जहां मैं होता है वहां गुरु नहीं होता। ___ गुरु का तीसरा लक्षण है-ममकार से मुक्ति। जहां मेरापन मिट जाता है वहीं अकिंचनता रह सकती है। अकिंचन व्यक्ति ही त्रैलोक्य का स्वामी बन सकता है, गुरु बन सकता है। यदि गुरु में गुरुता का भाव ही नहीं है वहां गुरु के प्रति होने वाला विनय भी लज्जित होता है। ऋषभचरित्र का प्रसंग है। भरत का दूत बाहुबलि के पास जाता है। जब वह बाहुबलि को भरत की अधीनता स्वीकार करने के लिए कहता है तब बाहुबलि रोषपूर्ण शब्दों में दूत से कहते हैं
'गुरौ प्रशस्यो विनयी गुरुर्यदि गुरुर्भवेत् ।
गुरौ गुरुगुणीने विनयोऽपि त्रपास्पदम् ।।' अरे दूत! तू व्यर्थ ही बकवास कर रहा है। भरत में गुरुता है कहां? गुरु यदि यथार्थ में गुरु होता है तो उसके प्रति होने वाला विनय प्रशस्य होता। यदि वह गुरु के गुणों से हीन है तो उसके प्रति किया जाने वाला विनय भी लज्जास्पद होता है। आगे बाहुबलि दूत से कहते हैं
'गुरोरप्यवलिप्तस्य कार्याकार्यमजानतः। उत्पथप्रतिपन्नस्य परित्यागो विधीयते।।'
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