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सिन्दूरप्रकर
पृथ्वी पर जीना दूभर हो जाता है। इसी आशय को प्रकट करते हुए संत कबीर कहते हैं
'कबीर ते नर अंध हैं, गुरु को कहते और । हरि रूठे गुरु ठौर है, गुरु रूठे नहि ठौर । । '
वे व्यक्ति अन्धे हैं, जो गुरु को स्वयं से अन्य समझते हैं। भगवान के रूठने पर उनको गुरु के पास स्थान मिल सकता है, पर गुरु के रूठने पर उन्हें कहीं भी स्थान प्राप्त नहीं हो सकता ।
जैन आगमों में भी गुरु आशातना से होने वाले भयंकर परिणामों को दर्शाया गया है। दसवैकालिकसूत्र में आचार्य की अप्रसन्नता के परिणामों की चर्चा करते हुए सूत्रकार कहता है
'आयरियपाया पुण अप्पसन्ना,
तम्हा अणाबाहसुहाभिकखी,
गुरुपसायाभिमुहो
रमेज्जा । । ' आचार्य के अप्रसन्न होने पर शिष्य को बोधि-लाभ नहीं मिलता। गुरु की आशातना से शिष्य को मोक्ष नहीं मिलता, इसलिए मोक्ष-सुख चाहने वाला शिष्य गुरु-कृपा के अभिमुख रहे।
किसी का गुरु बनना उतना महत्त्वपूर्ण नहीं है जितना कि गुरुता की कसौटी पर खरा उतरना । सहज ही जिज्ञासा होती है कि गुरु कौन हो सकता है? वह किन-किन लक्षणों से युक्त होता है? इसके समाधान में संस्कृत-साहित्य में कहा गया
अबोहिआसायण नत्थि मोक्खो ।
'गुशब्दस्त्वन्धकारः स्याद्, रुशब्दः प्रतिरोधकः । अन्धकारनिरोधित्वाद्, गुरुरित्यभिधीयते । । '
'गुरु' दो शब्दों से निष्पन्न है - गु और रु। गु का अर्थ है - अन्धकार । रु का अर्थ है - रोकने वाला। जो व्यक्ति अपने ज्ञानप्रकाश से अज्ञानरूप अन्धकार को तिरोहित कर देता है, वह गुरु कहलाता है। प्रकारान्तर से इसे ऐसे भी कहा जा सकता है
'अज्ञानतिमिरान्धानां
ज्ञानाञ्जनशलाकया ।
चक्षुरुन्मीलितं येन तस्मै श्रीगुरवे नमः ।।'
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जिनके चक्षु अज्ञानरूप तिमिर से अन्धे बने हुए हैं, उनके चक्षुओं को ज्ञानरूप अंजनशलाका से खोलने वाले गुरु ही होते हैं। उनको मेरा
नमस्कार ।
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