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________________ अवबोध-७ १०७ हैं, इसलिए वे द्वीप हैं। वे अशरणों को धर्म की शरण देते हैं, इसलिए वे शरण हैं। वे चलने वालों को गंतव्यस्थल मोक्ष तक पहुंचाते हैं, इसलिए वे गति हैं। वे प्राणिमात्र को धर्म में सुस्थिर करते हैं, इसलिए वे प्रतिष्ठा हैं। जब तक शिष्य को सद्गुरु नहीं मिलता, उसे न ज्ञान मिलता है, न ध्यान, न उसे सद्गति मिलती है और न मुक्ति । गुरु का शिष्य पर अनन्त उपकार होता है। शिष्य उस उपकार से कभी उऋण नहीं हो सकता । चाणक्यनीति में कहा गया 'एकमेवाक्षरं यस्तु, गुरुः शिष्यं प्रबोधयेत्। पृथिव्यां नास्ति तद् द्रव्यं, यद् दत्त्वा चानृणी भवेत् ।।' जो गुरु शिष्य को एक अक्षर का भी ज्ञान देता है उस शिष्य के लिए पृथ्वी पर ऐसा कोई द्रव्य नहीं है जिसे देकर वह गुरु से उऋण हो सके। शिष्य का गुरु को मान-सम्मान देना स्वयं शिष्य के लिए मान-सम्मान बढ़ाने वाला होता है। गुरु की गुरुता को शिरोधार्य करना स्वयं शिष्य के लिए महनीय होता है। गुरु का ऐसा कौन-सा कार्य है, जिसे शिष्य सम्पादित करके गुरु के ऋण से मुक्त हो सकता है। किसी कवि ने अन्योक्ति के द्वारा दूसरों को प्रेरणा देते हुए लिखा है'भुक्ता मृणालपटली भवता निपीता न्यम्बूनि यत्र नलिनानि निषेवितानि । हे राजहंस ! वद तस्य सरोवरस्य, कृत्येन केन भवितासि कृतोपकारः ?" कवि राजहंस को संबोधित करते हुए कहता है- अरे राजहंस! तूने सरोवर में रहकर उसका पानी पीया, कमलनाल को खाया, कमलों का सेवन किया। अब बता, तू कौनसा कार्य करके उस सरोवर का प्रत्युपकार कर सकेगा? यह उक्ति एक सुयोग्य शिष्य पर भी घटित होती है। गुरु का उपकार जन्म-जन्मान्तर तक होता है। वह गुरु के उपकार से कितना उऋण हो सकता है, यह उसके कार्य पर निर्भर है। गुरु आखिर गुरु होते हैं और शिष्य शिष्य होता है। गुरु का महान् उपकार शिष्य को तलहटी से समुन्नत शिखर तक पहुंचा देता है और बिन्दु से सिन्धु बना देता है। जो व्यक्ति मूढतावश, अज्ञानवश अपने गुरु को अप्रसन्न करता है अथवा गुरु किसी बात को लेकर उससे अप्रसन्न हो जाते हैं तो उसका इस Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003217
Book TitleSindurprakar
Original Sutra AuthorSomprabhacharya
AuthorRajendramuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages404
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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