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________________ गुरु का महत्त्व ७.अवबोध भारतीय संस्कृति का इतिहास गुरु-गौरव की यशोगाथाओं से भर हुआ है। आज भी जन-मानस में गुरु के प्रति सहज आकर्षण और श्रद्धा भक्ति का भाव प्रतिबिम्बित है। सन्त-परम्परा में गुरु का स्थान सर्वोपरि होता है। गुरु के बिना संसार में वैसे ही अंधकार है, जैसे रात्रि में सूर्य के बिना। गुरु का महत्त्व व्यक्ति विशेष से नहीं आंका जाता, वह आंक जाता है उसके ज्ञान, चारित्र तथा सद्गुणगौरव से। गुरु गुरु-महिमा से मंडित होते हैं, धर्म के आलोक से आलोकित होते हैं। उनमें शिष्य-निर्माण की कला होती है, सद्संस्कारों से भावित करने की दक्षता होती है। हे प्रत्येक शिष्य को गुरु की अर्हता तक पहुंचाने का प्रयत्न करते हैं, इसलिए वे शिष्य के लिए सर्वेसर्वा होते हैं, प्राण और त्राण होते हैं और जन जन के लिए वन्दनीय और पूजनीय भी होते हैं। बीज में वृक्ष आदि बनने का उपादान कारण विद्यमान है। मिट्टी में कुम्भ आदि बनने का शक्तिबीज निहित है। बीज को जब तक उर्वर भूमि पानी, हवा तथा सूर्य का आतप आदि निमित्त-कारण नहीं मिलते, मिट्ट को कुम्भकार, कुम्भकार का चक्र आदि निमित्त-कारण नहीं मिलते तब तक न तो बीज पुष्पित, पल्लवित और फलित हो सकता है और न ही मिट्टी घड़े आदि के रूप में परिणत हो सकती है। शिष्यों के निर्माण के लिए, उनको सुसंस्कारों से भावित करने के लिए गुरु ही उत्तरदायी होते हैं। वे अपने शिष्यों के लिए क्या कुछ नहीं करते? वे उनको ज्ञान का प्रकाश देते हैं, सुसंस्कारों का बीज वपन करते है, धर्म का मार्ग बताते हैं, दिग्भ्रान्तों को सत्पथ पर लाते हैं और सबसे महत्त्वपूर्ण बात है कि वे उनकी साधना में सहयोगी बनकर मोक्षपद तक पहुंचाते हैं। गुरु का मंगल सान्निध्य शिष्य को प्रतिपल मंगल देता है। उनके प्रति होने वाली आस्था हर समस्या को समाहित करती है। धर्मशास्त्रों में गुरु को द्वीप-शरण-गति-प्रतिष्ठा से संबोधित किया गया है। वे । भवसागर में डबते हए प्राणियों को सहारा देते हैं, उन्हें पड़ने से बचाते ..... Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.003217
Book TitleSindurprakar
Original Sutra AuthorSomprabhacharya
AuthorRajendramuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages404
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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