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सिन्दूरप्रकर गुणों से आपकी स्तवना-अर्चा करने वाले व्यक्ति आपके समान बन जाते हैं अथवा आप उनको अपने समान बना देते हैं। उस स्वामी से क्या, जो अपने आश्रित को अपने समान ऐश्वर्ययुक्त नहीं बनाता। ____ भक्त सदा भक्त बना रहे और भगवान सदा भगवान बना रहे, यह अर्हतों का दर्शन नहीं है। उनका दर्शन है-आत्मा को परमात्मा बनाना, बिन्दु से सिन्धु का निर्माण करना। इसलिए अर्हतों की पूजा-अर्चना के पीछे स्वार्थ जुड़ा हुआ है। वह स्वार्थ ही परार्थ में परिणत होता है। ___ कृतिकार आचार्य सोमप्रभ ने प्रस्तुत प्रकरण में अर्हतों की अर्चा से होने वाले अनेक आध्यात्मिक और भौतिक लाभों की विशद चर्चा की है। कोई भी अर्हत-उपासक किसी भौतिक सिद्धि के लिए जिनेश्वरदेव की पूजा-अर्चा नहीं करता। उसका एकमात्र ध्येय आत्मशुद्धि अथवा कर्मनिर्जरण का होता है। प्रासंगिक लाभ अध्यात्म-साधना में पड़ने वाले पड़ाव हैं। जैसे यश की प्राप्ति होना, लक्ष्मी का वरण करना, स्वर्ग का मिलना, आरोग्य का पाना तथा दारिद्र्य, भय और विपदाओं का नष्ट होना आदि। वास्तव में भौतिक सुख-सुविधाओं तथा ऋद्धि-सिद्धि-समृद्धि का मिलना निर्जरा का फल नहीं है, वह निर्जरा के सहवर्ती बन्धने वाले पुण्यकर्मों का परिणाम है। जैन दर्शन की मान्यता है कि जहां निर्जरा होती है वहां निश्चित ही पुण्य का बन्ध भी होता है। उस पुण्यबन्ध के कारण ही उपासक अयाचित और अनायास प्रासंगिक लाभों से भी लाभान्वित हो जाता है। इसलिए अर्हतों की पूजा का उद्देश्य है-आत्मा का निर्मलीकरण और उसकी अन्तिम निष्पत्ति है-मोक्षपद की प्राप्ति।
ग्रन्थकार सूरीश्वर ने प्रस्तुत प्रकरण के बारहवें श्लोक में 'यः पुष्पैर्जिनमर्चति...' जो व्यक्ति जिनभगवान की फूलों के द्वारा अर्चा करता है-ऐसा कहकर चौंकने वाली बात कही है। यह उनका अपना मंतव्य है। वीतराग की अर्चा पुष्पों के द्वारा कैसे हो सकती है? यह एक विचारणीय बिन्दु है। फूलों से उनका आशय क्या रहा होगा? यह भी एक विमर्शनीय प्रश्न है। बाह्यजगत् में सामान्यतः सुगन्ध देने वाले फूलों की ओर ही मनुष्य का ध्यान आकृष्ट होता है। अन्तर्जगत् में और भी अनेक फूल हैं जिनसे मनुष्य भलीभांति अर्हतों की पूजा कर सकता है। हारिभद्रीय टीका में उन्हीं फूलों का उल्लेख हुआ है। श्लोक में कहा गया है
'अहिंसा सत्यमस्तेयं, ब्रह्मचर्यमसङ्गता। गुरुभक्तिस्तपोज्ञानं सत्पुष्पाणि प्रचक्षते।।'
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