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________________ अवबोध-६ १०३ जाती है, पर उसका उद्देश्य अन्यथा नहीं होता। यथार्थवाद में जो जैसा है वैसा ही भाव उसमें झलकता है। उसमें कृत्रिमता नहीं होती।। टीकाकार अभयदेवसूरी ने अर्हतों की स्तुति में यथार्थवाद का निरूपण किया है। तीर्थंकर जयनशील, आत्मविजेता होते हैं। वे सबसे पहले मोह को जीतते हैं। उसके बाद अन्य कर्मशत्रु अपने आप पराजित हो जाते हैं। उनके लिए एक विशेषण है-'जितरागद्वेषमोहाः'। ... अर्हत् सर्वज्ञ होते हैं। उन्होंने ज्ञानावरणीय आदि घनघाती कर्मों का क्षय किया है। इसलिए वे मनुष्यों के लिए ही नहीं, स्वयं इन्द्र के द्वारा भी पूजनीय होते हैं। पूजित होने से कोई बड़ा नहीं होता। वह तो मात्र उपचार है। आप्तमीमांसा में आचार्य समन्तभद्र ने भगवान की स्तुति में कहा है 'देवागम - नभोयान - चामरादि - विभूतयः ।। मायाविष्वपि दृश्यन्ते, नातस्त्वमसि नो महान्।।' भगवन्! विमान के द्वारा देवता आपके पास आते हैं। आपके पास छत्र, चामर आदि विभूतियां हैं। इन से आप महान् नहीं हैं। ये सब तो मायावी-ऐन्द्रजालिक के पास भी हो सकती हैं। आपकी महानता का हेतु है-आपका निर्लिप्तभाव, आपकी निरहंकारिता। आप विभूतियुक्त हैं, फिर भी आपका किसी के प्रति रागद्वेष, आसक्ति का भाव नहीं है। अर्हतों की पूजा-अर्चना, गुणोत्कीर्तन तथा पर्युपासना महान् निर्जरा का हेतु है तथा स्वयं को उस आलोक से आलोकित करने का उपक्रम है। तीर्थंकर हमारे आदर्श हैं। हम उनके गुणों का उत्कीर्तन कर उनके गुणों को स्वयं में संक्रान्त करने का प्रयत्न करते हैं। वे आप्तपुरुष हैं, स्वतः प्रमाण हैं, इसलिए उनके वचन सबके लिए आदेय हैं। उनके द्वारा निर्दिष्ट पथ मनुष्यमात्र के लिए सदा अनुकरणीय है। उनका दर्शन आत्मकर्तृत्ववादी है, पुरुषार्थवादी है। वह दर्शन आत्मकर्तृत्व को जगाकर आत्मोपलब्धि को प्राप्त करने का है, भक्त से भगवान बनाने का है। इस सन्दर्भ में आचार्य मानतुंग ने भगवान ऋषभ की स्तुति करते हुए लिखा'नात्यद्भुतं भुवनभूषण! भूतनाथ! ___ भूतैर्गुणैर्भुवि भवन्तमभिष्टुवन्तः। तुल्या भवन्ति भवतो ननु तेन किं बा, भूत्याश्रितं य इह नात्मसमं करोति।' हे भुवनभूषण! हे भूतनाथ! इसमें पर्य नहीं कि अत्यधिक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003217
Book TitleSindurprakar
Original Sutra AuthorSomprabhacharya
AuthorRajendramuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages404
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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