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________________ जिनपूजन प्रकरण ६.अवबोध जैन परम्परा में तीर्थंकरों का अपना विशिष्ट स्थान है। तीर्थंकर के अन्यान्य नाम हैं-वीतराग, जिन, अर्हत्, प्रवचनकार और तीर्थ के प्रवर्तक आदि। धर्मप्रस्थापना में तीर्थंकरों की अहं भूमिका होती है। साधना-काल में वे राग-द्वेष को जीतने की साधना करते हैं। वीतराग अथवा कैवल्यप्राप्ति के पश्चात् वे मानव-कल्याण के लिए धर्मचक्र का प्रवर्तन करते हैं, तीर्थ की स्थापना करते हैं। तीर्थ का अर्थ है-'तीर्यतेऽनेन तीर्थम्'-जिसके द्वारा तरा जाए वह तीर्थ होता है। नदी आदि का घाट भी तीर्थ हो सकता है तथा जिसके आश्रयण से भवसागर को तैरा जाए वह भी तीर्थ कहलाता है। वह द्रव्य-भाव के भेद से दो प्रकार का होता है। नदी आदि का घाट द्रव्य तीर्थ है। भाव तीर्थ तीन प्रकार का है- प्रवचन, साधुसाध्वी, श्रावक-श्राविका रूप चतुर्विध संघ अथवा गणधर। प्रवचन वीतराग की वाणी है। संघ ज्ञान और चारित्र का संघात है तथा गणधर श्रुतज्ञान के धारक हैं। अतः तीनों ही भावतीर्थ की गणना में आते हैं। उनके द्वारा भव्यप्राणी अपना कल्याण करते हैं। तीर्थ स्थापन के कारण जिन तीर्थंकर कहलाते हैं। सभी सर्वज्ञ अथवा केवली तीर्थंकर नहीं होते। जिनके तीर्थंकर नाम-गोत्र का बन्ध होता है वे ही सर्वज्ञ तीर्थंकर बनते हैं। तीर्थंकर नाम-गोत्र का बंध अर्हद्भक्ति आदि बीस स्थानों से होता है। वह बंध मनुष्य गति में, शुभलेश्या में, स्त्री, पुरुष और नपुंसक किसी के भी हो सकता है। इस अवसर्पिणी काल में भगवान ऋषभ से लेकर भगवान महावीर तक चौबीस तीर्थंकर हुए हैं। सभी तीर्थंकर स्वयं संबुद्ध होते हैं। लोकान्तिक देवों के द्वारा संबोधित होने पर वे जगत् के कल्याण के लिए तीर्थ की स्थापना करते हैं। जैन साहित्य में तीर्थंकरों की स्तति-अर्चा से सम्बन्धित अनेक ग्रन्थ हैं। स्तुति के दो प्रकार हैं-अर्थवाद और यथार्थवाद। अर्थवाद में यथार्थता के साथ अतिशय का भाव आ जाता है, विवेचन में अतिशयोक्ति हो For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org Jain Education International
SR No.003217
Book TitleSindurprakar
Original Sutra AuthorSomprabhacharya
AuthorRajendramuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages404
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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