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________________ १०० सिन्दूरप्रकर तेल डालना उचित है। चोर के रहते हुए सावधान होने में लाभ है। मुमुक्षाभाव के होने पर उसका स्नेह ही निर्वाण-दीपशिखा को प्रज्वलित रख सकता है, मुक्ति दे सकता है। - मुक्ति का अधिकार हर व्यक्ति को है। उसमें जाति-सम्प्रदाय, वेशभूषा, लिंग आदि की बाध्यता नहीं होती। आचार्य हरिभद्रसूरी ने इस विषय में लिखा है 'नाशाम्बरत्वे न सिताम्बरत्वे, न तर्कवादे न च तत्त्ववादे। न पक्षपाताश्रयणेन मुक्तिः, कषायमूक्तिः किल मुक्तिरेव।।' मुक्ति न तो दिगम्बरत्व में है, न श्वेताम्बरत्व में, न तर्कवाद में है, न तत्त्ववाद में है और न ही किसी एक पक्ष का आश्रय लेने में है। वास्तव में कषायों से सर्वथा मुक्त होना ही मुक्ति है। सारी साधना मुक्ति के लिए, वीतरागता की प्राप्ति के लिए और कषायों से मुक्त होने के लिए होती है। आचार्य शुभचन्द्र ने लिखा'अविच्छिन्नं सुखं यत्र स मोक्षः परिपठ्यते'-जहां शाश्वत सुख है वही मोक्ष है। राग-द्वेष मुक्ति का बाधक तत्त्व है। इसी प्रसंग में आचार्य ने लिखा रागद्वेषावनिर्जित्य किमरण्ये करिष्यसि? रागद्वेषौ विनिर्जित्य किमरण्ये करिष्यसि? ___ जिसने राग-द्वेष को नहीं जीता वह अरण्य में जाकर क्या करेगा? जिसने राग-द्वेष को जीत लिया वह अरण्य में जाकर भी क्या करेगा? उत्तराध्ययनसूत्र में कहा गया- 'रागो य दोसो वि य कम्मबीयं'-राग-द्वेष कर्म के बीज हैं। राग-द्वेष-विनिर्मुक्त व्यक्ति ही कर्ममुक्त हो सकता है, शाश्वत सुखों को पा सकता है, सिद्ध-बुद्ध-मुक्त हो सकता है। यही है उसकी मुक्ति। आचार्य सोमप्रभ ने भव्यप्राणियों के सामने एक शर्त प्रस्तुत करते हुए कहा है-यदि तुम्हारा मन मोक्षपद पाने के लिए आतुर है तो मैं तुम्हारे सामने कुछेक आचरणीय बिन्दुओं को प्रस्तुत करता हूँ। वे इक्कीस आचरणीय बिन्दु प्रत्येक मुमुक्षु के लिए समाचरणीय १. अर्हतों की अर्चा २. सद्गुरु की उपासना ३. जिनशासन का स्वीकरण ४. चतुर्विध धर्मसंघ की भक्ति ५. अहिंसा का आचरण ६. सत्य का पालन ७. चौर्य का परिहार ८. शील का पालन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003217
Book TitleSindurprakar
Original Sutra AuthorSomprabhacharya
AuthorRajendramuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages404
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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