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इक्कीस प्रकरण
५.अवबोध
धर्म का आदि बिन्दु है-सम्यग्दर्शन और अन्तिम बिन्दु है-निर्वाण। अध्यात्म की साधना सम्यग्दर्शन से प्रारंभ होती है और वह निर्वाण को प्राप्त कर परिसंपन्न हो जाती है। जिसकी आत्मा, परमात्मा, स्वर्ग, नरक, पुनर्जन्म और कर्म में आस्था होती है वही अध्यात्म की साधना करने का अधिकारी हो सकता है। साधना का उद्देश्य है-चित्त की निर्मलता। मुमुक्षा का भाव उस साधना का प्रेरक तत्त्व बनता है। ___ जैन दर्शन में मुक्ति की अर्हता के आधार पर दो प्रकार के जीव माने गए हैं-भव्य और अभव्य। जिनमें मोक्ष-गमन की योग्यता होती है, वे जीव भव्य कहलाते हैं। जिनमें मुक्त होने की योग्यता नहीं होती वे जीव अभव्य होते हैं। जीव स्वभाव से ही भव्य अथवा अभव्य होता है। यह अवस्था कर्मकृत नहीं होती, स्वाभाविक होती है। सभी भव्य जीव सिद्ध नहीं होते। परन्तु जो सिद्ध होते हैं वे भव्य ही होते हैं। अभव्य ग्रन्थिभेद नहीं कर सकता। उसमें मुमुक्षाभाव भी नहीं होता। वह मुनियों अथवा तीर्थंकरों की ऋद्धि-सिद्धि को देखकर प्रवजित हो सकता है, देवलोक में जा सकता है। किन्तु वह सिद्ध नहीं हो सकता। सारे भव्य जीव भी सिद्ध नहीं होते। उनमें मुमुक्षा का भाव अवश्य बना रहता है, किन्तु अनुकूल सामग्री मिलने पर ही भव्यजीव सिद्ध हो सकते हैं, सामग्री के अभाव में नहीं।
मुमुक्षा का भाव जाग्रत होना बड़ा कठिन कार्य है। इसलिए शंकराचार्य ने कहा- 'दुर्लभं मुमुक्षुत्वम्। मनुष्य-जीवन में मुमुक्षुत्व का प्राप्त होना दुर्लभ है। वह भाव ही मनुष्य को आगे बढ़ने की प्रेरणा देता है। यदि जीव में मुमुक्षाभाव ही समाप्त हो गया तो वह अपनी मंजिल को कैसे प्राप्त करेगा? संस्कृतकवि ने ठीक कहा_ 'निर्वाणदीपे किमु तैलदानं, चौरे गते वा किमु सावधानम्।'
दीपक के बुझने पर तेल डालने से क्या प्रयोजन? चोर के चले जाने पर सावधान होने से भी क्या प्रयोजन? जब तक दीपक जल रहा है उसमें
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