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________________ ९८ सिन्दूर कम होते हैं। मनुष्य का जन्म भी मिल गया, सुनने को धर्म भी मिल गया, उस पर श्रद्धा भी हो गई, किन्तु जीवन में धर्म का पुरुषार्थ नहीं हुआ तो सभी बातें अधूरी रह जाती है। यह बात वैसे ही है कि तट के निकट पहुंचकर भी तट पर खड़े रह जाना। भगवान महावीर ने कहा-' - 'वीरियं पुण दुल्ल - धर्म में प्रवृत्त होना सबसे दुर्लभ है अर्थात् संयम तथा धर्माचरण में वीर्य करना अत्यन्त दुर्लभ है। कुछेक लोगों की संयम में रुचि होती है फिर भी वे संकल्पबल, धृति, सन्तोष और अनुद्विग्नता के अभाव में उसका आचरण नहीं कर सकते। आत्मानुशासन में धर्म की महत्ता को बताते हुए कहा है- 'संकल्प्य कल्पवृक्षस्य, चिन्त्यं चिन्तामणेरपि । असंकल्प्यमसंचिन्त्यं, फलं धर्मादवाप्यते ।।' कल्पवृक्ष से संकल्प किया हुआ और चिन्तामणि से चिन्तन किया हुआ पदार्थ मिल जाता है, किन्तु धर्म से असंकल्प्य एवं अचिन्त्य फल भी मिल जाता है। इसलिए धर्म का आचरण मनुष्य जीवन की सार्थकता के लिए परमोपलब्धि का हेतु बनता है। इस प्रकार जीवन को सफल बनाने वाली यह दुर्लभ चतुरंगी है। इस चतुरंगी को पाने वाले भी दुर्लभ हैं । दुर्लभता में दुर्लभता का समावेश दुर्लभता का ही सृजन करता है । निष्कर्ष की भाषा में कहा जा सकता हैमनुष्य जन्म दुर्लभ है। Sucking • • • • • • मनुष्यत्व को पाकर भी उसको सार्थक करना दुर्लभतम है। मनुष्य जीवन की दुर्लभता समझाने के लिए उसकी तुलना व्यवहार-जगत् की दुर्लभ वस्तुओं से की जा सकती है। वास्तव में मनुष्य जन्म अतुलनीय, अनुपमेय है। मनुष्य का जन्म पाकर भी यदि उसमें श्रुति, श्रद्धा और संयम के पराक्रम की समन्विति नहीं होती तो वह मनुष्यजीवन व्यर्थ है । संयम अथवा धर्माचरण में वीर्य का होना उसको आत्मसात् करना है । उसके बिना तट पर पहुंच कर भी तट से दूरी है। मनुष्य जीवन की सफलता का सबसे बड़ा बाधक तत्त्व है प्रमाद । मनुष्य जीवन को सार्थक बनाने का तात्पर्य है - दुःखों के चक्रव्यूह का भेदन करना, जन्म-मरण की परम्परा से मुक्त होना । Jain Education International For Private & Personal Use Only ... www.jainelibrary.org
SR No.003217
Book TitleSindurprakar
Original Sutra AuthorSomprabhacharya
AuthorRajendramuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages404
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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