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________________ अवबोध-४ श्रवण के लिए मनुष्य के पास दो कान हैं। वह उनका उपयोग विविध कथाओं-स्त्रीकथा, भक्तकथा, देशकथा, राजकथा तथा मिथ्या विकथाओं को सुनने में लेता है। शास्त्रकारों ने 'अध्यात्मश्रवणं श्रुतिः'--अध्यात्मश्रवण को ही श्रुति कहा है। यह एक तथ्य है कि प्रत्येक व्यक्ति में धर्मश्रवण की रुचि नहीं होती। उसका सारा अवधान संगीत आदि मनोज्ञ शब्दों अथवा इधर-उधर की निन्दापरक व्यर्थ बातों को सुनने में ही अटका रहता है। उसका कारण है कि मनुष्य का रस धर्म की बातों को सुनने में नहीं है। जिनका चित्त धार्मिक-भावना से आर्द्र होता है, जिनमें धर्म को जानने की जिज्ञासा होती है वे ही व्यक्ति धर्म का श्रवण कर सकते हैं, धर्म में आनंद का अनुभव कर सकते हैं। इसलिए धर्मजिज्ञासा और धर्मशास्त्रों का श्रवण-दोनों ही मनुष्य के लिए दुर्लभ हैं। सार्थकता की दिशा में दोनों की युति मनुष्य-जीवन को सफल बनाती है। धर्म के आचरण का दूसरा बिन्दु है-श्रद्धा। भगवान महावीर ने कहा-'सद्धा परम दुल्लहा'-श्रद्धा परम दुर्लभ है। सहज जिज्ञासा होती है कि श्रद्धा किस पर? श्रद्धा सदा सत्य पर होती है, वीतराग वचनों पर होती है। आत्मा-परमात्मा तथा पुनर्जन्म आदि सत्य वीतराग के वचन हैं। वे मिथ्या नहीं हो सकते। कुछ लोग मिथ्यादृष्टि होते हैं। उनका दृष्टिकोण विपरीत होता है। वे अपने दृष्टिकोण से अस्ति को भी नास्ति देखते हैं। सम्यकदृष्टि का मिलना कठिन होता है। वही मोक्ष का हेतु बनता है। आचार्य उमास्वाति ने लिखा- 'सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्राणि मोक्षमार्गः'। जब सम्यग्दर्शन पृष्ट होता है तब शंका, कांक्षा, वितिगिच्छा आदि दोष व्यक्ति को विचलित नहीं कर सकते। उसकी धर्म के प्रति होने वाली श्रद्धा सुमेरगिरि की भांति दृढ़ हो जाती है। जहां श्रद्धा नहीं होती वहां व्यक्ति का मन चलायमान रहता है। शास्त्रकारों ने अश्रद्धा-श्रद्धा के अन्तर को स्पष्ट करते हुए कहा है 'अश्रद्धा परमं पापं, श्रद्धा पापप्रमोचिनी जहाति । पापं श्रद्धावान, सर्पो जीर्णमिव त्वचम्।।' अश्रद्धा महापाप है और श्रद्धा पापनाशक। श्रद्धाशील व्यक्ति पापों का परित्याग वैसे ही कर देता है जैसे सर्प अपनी पुरानी केंचुली को छोड़ता है। ऐसी दृढ श्रद्धा ही मनुष्य-जीवन को सार्थक बना सकती है। धर्म के आचरण का तीसरा बिन्दु है-संयम में पराक्रम। व्यक्ति में अनन्तशक्ति है। संयम में अपने वीर्य का नियोजन करने वाले व्यक्ति बहुत Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003217
Book TitleSindurprakar
Original Sutra AuthorSomprabhacharya
AuthorRajendramuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages404
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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