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________________ ९६ सिन्दूरप्रकर वह दुर्लभता अनुपमेय होती है। फिर भी काव्य- रसिक रचनाकार आचार्य सोमप्रभ ने मनुष्य-जन्म की दुर्लभता को व्यवहारजगत् की बहुमूल्य वस्तुओं के साथ उपमित और मूल्यांकित किया है। वे दुर्लभता के प्रसंग में कहते हैं -- मनुष्य - जन्म चिन्तामणि रत्न, सोने के थाल, अमृत तथा प्रवर हाथी के तुल्य है । जो व्यक्ति मूढतावश अथवा प्रमादवश मनुष्य जन्म को सार्थक नहीं करते वे अपने हाथ में आए हुए चिन्तामणि रत्न को समुद्र में अथवा ate को उड़ाने के लिए फेंक देते हैं । वे मनुष्य जन्म को वैसे ही व्यर्थ गंवाते हैं, जैसे कोई अज्ञानी सोने के थाल में धूलि भरता है, पैरों को अमृत से धोता है और उत्तम हाथी को लकड़ियों का भार ढोने में काम लेता है। इसलिए मनुष्य जीवन को सार्थक बनाने का एक ही उपाय है-धर्म की आराधना । यदि आराधना होती भी है तो वह नरक के भय अथवा स्वर्गसुखों के प्रलोभन से होती है, आत्मशुद्धि के लक्ष्य से नहीं की जाती। मनुष्य इन्द्रिय-चेतना के स्तर पर जीता है। बाह्य आकर्षणों का प्रलोभन प्रतिपल उसके चित्त को मूढ बना रहा है। जब-जब इन्द्रियविषयों - शब्द, रूप, रस, गन्ध और स्पर्श का प्रसंग उपस्थित होता है तो इन्द्रियां उनउन विषयों में व्यापृत हो जाती हैं । उस समय इन्द्रियों का निग्रह करना, उनको अपने-अपने विषयों से पराङ्मुख करना वैसे ही दुष्कर होता है, जैसे दुष्ट अश्व को वश में करना। वहां धर्म की आराधना गौण हो जाती है और प्रधानता भोगों की बन जाती है। इसी आशय को स्पष्ट करते हुए कृतिकार आचार्य कहते हैं- जो अधम व्यक्ति भोगों की कामना से विषयों की ओर दौड़ते हैं वे प्राप्त धर्म को ठुकराकर वैसी ही प्रवृत्ति करते हैं, जैसे कोई व्यक्ति अपने घर में लगाए हुए कल्पवृक्ष को जड़मूल से उखाड़कर धत्तूरे का वृक्ष बोता है, चिन्तामणि रत्न को फेंककर कांच के टुकड़े बटोरता है और हिमालय-तुल्य ऊंचे विशालकाय हाथी को बेचकर गधा खरीदता है। आचार्य सोमप्रभ मनुष्यों की अज्ञानता पर तरस खाते हुए और अज्ञानजन्य परिणाम को दर्शाते हुए कहते हैं - वे लोग मूर्खशिरोमणि हैं जो मनुष्य का जन्म पाकर भी इन्द्रियों की चंचलता के वशीभूत होकर कामभोगों के क्षणिक सुखों के लिए धर्म का आचरण नहीं करते। वे इस असीम संसार-समुद्र में वैसे ही डूबते हैं, जैसे कोई उत्तम नौका को छोड़कर पाषाण खंड से तैरने का प्रयत्न करता है। भव्य प्राणियों के लिए धर्म का आचरण करना उत्तम नौका के समान है। धर्म के आचरण का प्रथम बिन्दु है - श्रुति-धर्म को सुनना । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org Jain Education International
SR No.003217
Book TitleSindurprakar
Original Sutra AuthorSomprabhacharya
AuthorRajendramuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages404
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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