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________________ अवबोध-४ लाख परकोटों को लांघकर मनुष्यजीवन पाता है। इसे दुर्लभ कहा जाए अथवा सुलभ? यह स्वतः गम्य है। किसी को मनुष्य-जन्म मिल भी गया, पर उसने उसे सार्थक नहीं बनाया तो उस दुर्लभता से भी क्या? मनुष्य का आकार-प्रकार मिलने से कुछ नहीं होता। मनुष्य-जन्म की दुर्लभता तभी सार्थक होती है जब जीवन को धर्म-आराधना में लगाया जाए। कुछ व्यक्ति मनुष्य-जन्म पाते हैं, पर वे बिना कुछ किए ही अपने जीवन के अस्तित्व को मृत्यु के मुंह में वैसे ही विलीन कर देते हैं, जैसे मेघ की बून्हें बादलों से निकलकर समुद्र के जल में समा जाती हैं। कुछ व्यक्ति ऐसे भी होते हैं, जो अपने जीवन को द्यूत-मद्य-वेश्यागमन आदि व्यसनों में वैसे ही बरबाद कर देते हैं, जैसे मेघ की बून्दें किसी जलते हुए अंगारों पर पड़कर अपने अस्तित्व को समाप्त कर देती हैं। कुछ व्यक्ति अपने जीवन को परमार्थ आदि कार्यों में नियोजित कर उसकी सार्थकता को वैसे ही सिद्ध करते हैं, जैसे कि मेघ की बन्ने धान्य के खेतों का सिंचन कर फसलों को वृद्धिंगत करती हैं। कुछ व्यक्ति ऐसे भी होते हैं, जो अपने जीवन को धर्म-आराधना से भावित कर उसे बिन्दु से सिन्धु, आत्मा से परमात्मा तथा अणु से विराट बनाने का वैसे ही सार्थक प्रयत्न करते हैं, जैसे कि मेघ की बुन्दें स्वातिनक्षत्र में किसी सीप के मुंह में पड़कर मोती बनती हैं। ऐसे व्यक्ति दुर्लभ होते हैं जो मनुष्य-जन्म की दुर्लभता का अंकन कर उसका लाभ उठाते हैं। उसमें सबसे बड़ा बाधक तत्त्व है-मनुष्य का अपना प्रमाद। वह चेतना की क्रियाशीलता को निष्क्रिय करता है, धर्म के प्रति होने वाले उत्साह को गिराता है और पुरुषार्थ को ढकता है। इसलिए भगवान महावीर ने अपने अन्तेवासी गणधर गौतम को संबोधित करते हए कहा-'समयं गोयम! मा पमायए'-हे गौतम! तू क्षणभर भी प्रमाद मत कर। 'खणं जाणाहि पंडिए'- जो क्षण (समय) को जानता है वह पंडित है। 'उट्ठिए णो पमायए'-उठो! प्रमाद मत करो। 'पमादो मच्चुनो पदं'-प्रमाद मृत्यु का स्थान है। 'धीरे मुहुत्तमवि णो पमायए'–धीर पुरुष मुहूर्तमात्र भी प्रमाद नहीं करते। ये ऐसे प्रेरक सूक्त हैं जो अप्रमाद की मूल्यवत्ता का प्रतिपादन करते हैं। जो समय का मूल्यांकन करता है वह अपने पुरुषार्थ का सम्यक् नियोजन कर मनुष्य-जन्म को सार्थक और सफल बना लेता है। __यह सत्य है कि मनुष्य-जन्म दुर्लभ है। उसकी दुर्लभता को किसी वस्तुविशेष से न तो उपमित किया जा सकता है और न ही मूल्यांकित। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003217
Book TitleSindurprakar
Original Sutra AuthorSomprabhacharya
AuthorRajendramuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages404
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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