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________________ ९४ सिन्दूरप्रकर है। संयोग से कोई निमित्त मिलता है। उससे भावों की स्वतः शुद्धि होती है। वह शुद्धता ही उसे निगोदरूपी कूप से निकालने के लिए रज्जु का काम करती है। वहां से निकलने पर त्रसत्व का मिलना और भी दुर्लभ है। उससे पूर्व जीव कभी पृथ्वी, कभी अप, कभी तेजस, कभी वायु और कभी वनस्पतियोनि में भ्रमण करता है। वस होने पर वह कभी कीट तो कभी पतंगा, कभी कुन्थ तो कभी चींटी होता है। पंचेन्द्रियत्व की प्राप्ति, पर्याप्त और समनस्क होना उसके लिए उत्तरोत्तर दुर्लभ होते हैं। गतिचक्र में घूमता हुआ वह कभी तिर्यंच बनता है तो कभी वह नरक की वेदना को सहता है और कभी वह देवता के सुखों को भोगता है। किसी प्रकार यदि वह जीव मनुष्यत्व को पा भी लेता है तो आर्यदेश, श्रेष्ठकुल, धर्मजिज्ञासा और संयम में पराक्रम का होना और भी दुष्कर होता है। इसी सन्दर्भ में स्थानांगसूत्र में कहा गया- 'तओ ठाणाई देवे पोहेज्जा, तं जहा-माणुस्सग भवं, आरिए खेत्ते जम्म, सकुलपच्चायाति।। देवता भी तीन बातों की इच्छा करते हैं-मनुष्यजीवन, आर्यक्षेत्र में जन्म और उत्तमकुल की प्राप्ति।। देवों के लिए भी यदि उनकी प्राप्ति सुलभ नहीं है तो मनुष्यों को उनकी सुलभता कहां से होगी? इस प्रकार एक जीव जन्म-मरण की कितनी बीहड़ घाटियों को पार करता है। कितनी-कितनी सुख-दुःख की घेराबन्दियों से मुक्त होता है, तब कहीं उसे मनुष्य-जन्म मिलता है। __ आज की अहं समस्या है जनसंख्या की। जनसंख्या को देखकर मनुष्यजन्म की दुर्लभता पर भी एक प्रश्नचिह्न लगता है। तर्कशील व्यक्ति मनुष्यजन्म को इसलिए दुर्लभ नहीं मानते कि संसार में आबादी तीव्र गति से बढ़ रही है। हो सकता है कि सारे संसार की अधिकतम आबादी पांच या छह अरब के आस-पास हो। यदि निगोद के जीव, बादरकाय के जीव तथा तिर्यञ्च, नारकीय और देवलोक के जीवों की गणना की जाए तो संसार की जनसंख्या के सामने उन जीवों की संख्या महाविशाल हो जाती है। कहां तो अण के समान सारे संसार के जीवों की संख्या और कहां पहाड़ के समान सारे लोक में समाए हुए जीवों की संख्या? दोनों में एक स्पष्टरेखा प्रतीत होती है। फिर उन जीवों को मनुष्यत्व तक पहुंचने में भवभ्रमण की अनन्तकालीन परम्परा में कितनी बार जन्म-मरण करना पड़ता है, कितने गर्भावासों के क्लेशों, नरकों की असावेदनाओं तथा तिर्यंचों के वध-बन्धन आदि अनेक कष्टों को सहन करना पड़ता है, तब कहीं मनुष्य-जन्म की प्राप्ति होती है। संक्षेप में कहा जाए तो वह चौरासी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003217
Book TitleSindurprakar
Original Sutra AuthorSomprabhacharya
AuthorRajendramuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages404
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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