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अवबोध-४ दुर्लभ क्या दुर्लभतम है। तीर्थंकरों की वाणी इसकी अनुभूति में साक्ष्यभूत है। सत्यद्रष्टाओं की सत्य की खोज जिसकी दुर्लभता का प्रतिपादन है, क्या वह सत्य कभी मिथ्या हो सकता है? वह सत्य त्रैकालिक होता है। वह अनुभूत सत्य ही प्राणिमात्र के लिए आदर्श और अनुकरणीय बनता है। संसार का प्रत्येक प्राणी उस बिन्दु पर अवस्थित है जहां से दुःखों का चक्र प्रारंभ होता है। वह सतत मनुष्य की परिक्रमा कर रहा है। उसकी परिधि में कभी मनुष्य जन्म के क्लेशों से आक्रान्त होता है तो कभी जरा से जर्जरित। कभी वह रोग-शय्या में सोता है तो कभी मृत्यु से भयभीत होता है। एक के बाद एक अनगिन दुःखों का तांता लगा ही रहता है। एक शब्द में कहा जा सकता है कि यह सारा संसार मनुष्य के लिए दुःखों का निमित्त बनता है। उस संसार-अरण्य से कैसे बाहर निकला जाए? दुःखों के चक्रव्यूह का भेदन कैसे किया जाए? आत्मिक-सुखों की अनुभूति किस प्रकार हो? आत्मा से परमात्मा कैसे बना जाए? उसके लिए मनुष्य-जन्म जैसा उत्तम वर मिलना अत्यन्त दुष्कर होता है।
तिर्यञ्चगति में पशु-पक्षियों का जीवन विवेक-चेतना से सर्वथा शून्य रहता है। उनमें धर्म की बुद्धि की स्फुरणा भी नहीं होती। वे धर्मआराधना करने में सक्षम नहीं हो सकते। वे कभी पूर्वसंचित संस्कारों से उबुद्ध होकर धर्म की आराधना भी करते हैं तो वह अधूरी रहती है। नरक में नारकीय जीव नरक के घोर दुःखों की प्रताड़ना सहन करते हैं। वहां उनका धार्मिक-विवेक प्रबुद्ध नहीं होता। देवगति में देवता सर्वथा विलासी होते हैं। उनका सारा जीवन विलास में ही व्यतीत होता है। वे धर्म को जानते हुए भी धर्म नहीं कर पाते। इसलिए मनुष्य-जन्म ही ऐसा अलभ्य अवसर है जो भीतर के प्रभु को जगाकर स्वयं को भी प्रभु बना देता है। वह कर्मरूपी राख से ढकी हुई आत्मा की दिव्यज्योति को अनावृत कर देदीप्यमान कर देता है और चैतन्य के उस छोर तक पहुंचा देता है जहां जन्म-मरण की परम्परा समाप्त हो जाती है। उसकी फलश्रुति होती है-चैतन्य की प्रभास्वरता। आत्मा चिदानन्दमय होकर अपने स्वरूप में अवस्थित हो जाती है, ज्ञाता-द्रष्टा बन जाती है। यही है मनुष्य-जन्म को पाने की सार्थकता, यही है आत्मा से परमात्मा बनने का स्वर्णिम क्षण। वह क्षण किसी सुकृतवान् पुरुष को ही प्राप्त होता है और वह भी कितने जन्म-जन्मान्तरों में।
निर्ग्रन्थ वाणी में कहा गया है-यह जीव अनादिकाल से निगोदरूपी अन्धकूप में पड़ा हुआ है। वह निरन्तर जन्म-मृत्यु की पीड़ा को भोग रहा
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