SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 98
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अवबोध होता है। अन्यथा तो सही विषय को भी गलत समझा जा सकता है और उसका अनर्थकारी प्रभाव भी हो सकता है। 'राम' का नाम यथार्थ और सत्य है, किन्तु मांगलिक प्रसंगों पर यदि राम नाम सत्य है' का घोष कर दिया जाये, तो वह लोकपरंपरा-विरुद्ध होने से आपके लिए नाई के खर्च की बचत भी करा सकता है। ____ लोक में कहावत है कि एक बार दाँतों और जीभ के बीच तकरार हो गयी। दाँतों ने अकड़कर कहा कि "अरी जीभ ! तू नाजुक-सी चीज है, ज्यादा इधर-उधर मत घूमा कर, नहीं तो हम बत्तीस हैं और वज्र-सदृश कठोर भी हैं; तुझे चबा डालेंगे।" जो जीभ बोली “दन्त महाशयो ! इतना मत इतराईये, नहीं तो अभी किसी पहलवान को तीखी-सी गाली दूंगी; तो बत्तीसों के बत्तीस आसनच्युत होकर धूलधूसरित नज़र आओगे।" ___ कहने का तात्पर्य मात्र इतना ही है कि वाच्य-विषय एवं वाचनशैली – दोनों का यदि संतुलित एवं मर्यादित व्यवहार नहीं हो, तो वचनों का अनर्थकारी रूप भी हो सकता है; तथा यदि यही सुनियोजित एवं मर्यादित हो, तो वह पुष्पार्चन-योग्य भी बना सकता है। इसीलिए किसी की 'बोली गोली-सी' लगती है. तो किसी के वचनामृत 'मुखचन्द्र तैं अमृत झरै'. प्रतीत होते हैं। ___ लोक में अनेक प्रकार के जीव हैं. उनकी विविध मान्यतायें हैं। और इसके भी महत्त्वपूर्ण कारण हैं। जहाँ वैयक्तिक समझ एवं योग्यता कारण हैं, वहीं वस्तु की अनन्त धर्मात्मकता एवं संसारी प्राणों की सीमित समझ भी सर्वाधिक महनीय कारण हैं। अनन्त धर्मात्मक वस्तु को क्षुद्रक्षयोपशमवाला संसारी प्राणी पूर्णत: समझ नहीं पाता है. और अपनी सीमित समझ को ही कूपमंडूकवत् सर्वज्ञोऽहं' मानता हुआ “यह ऐसा ही है" के वचनप्रयोग से विवाद खड़ा करता है; जैसे कि छह अंधे हाथी के विभिन्न अंगों को टटोलते हुये हाथी को परस्पर विरुद्ध नानारूपों वाला प्रतिपादित करके परस्पर कलह उत्पन्न करते हैं। कदाचित् उनमें स्पर्शज्ञान के अतिरिक्त अन्यधर्म-अवलोकनी दृष्टि भी होती, तो ऐसी दुरवस्था नहीं होती। इससे स्पष्ट है कि यदि जिनकी दृष्टि व्यापक नहीं है तथा ज्ञान विशद नहीं है, तथा 'जितना मैंने देखा-जाना—वही सत्य है' का पूर्वाग्रह भी है; तो उन लोगों के वचन मात्र विसंवाद के ही निमित्त हो सकते हैं। वस्तुतत्त्व के अनन्तधर्मों के प्रति अपार जिज्ञासा एवं विनयभाव के साथ-साथ यदि वाचिक-सहिष्णुता भी हो, तो व्यक्ति के वचन हित-मित-प्रिय ह्ये बिना नहीं रह सकते। इसी वचनशैली के सर्वोत्कृष्ट स्वरूप की अभिव्यक्ति का नाम है 'स्याद्वाद', जो कि जैनदर्शन के स्तम्भ-चतुष्टय (अहिंसा, अनेकान्त, स्याद्वाद, अपरिग्रह) में से अन्यतम है। 'स्याद्वाद' पद में दो पद हैं—'स्यात्' एवं 'वाद'। इनमें से 'स्यात्' पद 'क्वचित्', 'कथंचित्' या 'किसी अपेक्षा से' – इस अर्थ को सूचित करनेवाला निपात' है। तथा 'वदनं वाद:' की व्युत्पत्ति के अनुसार 'वाद' शब्द का अर्थ है 'कथन'। इसप्रकार समुच्चयरूप से 'स्याद्वाद' पद का अर्थ है 'एक ऐसी कथनपद्धति. जिसमें विवक्षित धर्म Jain all 96erma प्राकृतविद्या जनवरी-जन'2001 (संयक्तांक) - महावीर-चन्दना-विशेषांक ..
SR No.003215
Book TitlePrakrit Vidya 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajaram Jain, Sudip Jain
PublisherKundkund Bharti Trust
Publication Year2001
Total Pages148
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy