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के रस को सोखने के लिये सीर (सूर्य) के समान तथा गिरि के समान धीर (धैर्यवान) 'वीर' को मैं नमस्कार करता हूँ !
अनन्तविज्ञानमतीतदोषमबाध्यसिद्धान्तममर्त्यपूज्यम् । श्रीवर्द्धमानं जिनमाप्तमुख्यं स्वयम्भुवं स्तोतुमहं यतिष्ये ।। -(आचार्य हेमचन्द्रसूरि)
अर्थ :-- अनन्तज्ञान के धनी, समस्त दोषों से रहित, अकाट्य सिद्धान्त के प्रतिपादक, देवों द्वारा पूजित, आप्त-पुरुषों में प्रमुख, स्वयंभू वर्द्धमान जिनेन्द्र की स्तुति करने का मैं प्रयत्न करता हूँ।
कुंडलपुरि-सिद्धार्थ-भूपालम्, तत्पत्नी-प्रियकारिणी-बालम् । तत्कुलनलिन-विकाशितहसम्, घातपुरोघातिक-विध्वंसम् ।। ज्ञानदिवाकर-लोकालोकम्, निर्जित-कर्माराति-विशोकम् । बालवयस्सयम-सुपालितम्, मोहमहानल-मथन-विनीतम् ।। -(पं0 आशाधर)
अर्थ :- वह कुंडलपुर के राजा सिद्धार्थ और उनकी पत्नी प्रियकारिणी के बालक (पुत्र) हैं। उनके कूलरूपी कमल को विकसित करनेवाले सूर्य के समान हैं। समस्त घात-प्रतिघात के विध्वंसक हैं। अपने ज्ञानरूपी सूर्य से लोक और अलोक को प्रकाशित करनेवाले हैं। कर्म शत्रुओं को पराजित कर वे विशोक (शोक से विहीन) हुए हैं। बालवयः से ही संयम का सम्यक् पालन कर और मोहरूपी महाअग्नि का शमन कर वह विनीत हुये
'वैशाली' और 'पावापुर' दो तीर्थ 'भारत के प्राचीन धर्मों में जैनधर्म भी है। जैनधर्म के प्रतिष्ठापक श्रमण महावीर कौन थे? यह भी घुमक्कड़-राज थे। घुमक्कड़-धर्म के आचरण में छोटी से बड़ी तक सभी बाधाओं और उपाधियों को उन्होंने त्याग दिया - घर-द्वार ही नहीं, वस्त्र का भी वर्णन किया था। करतल-भिक्षा तरुतलवास, दिग्-अंबरत्व उन्होंने इसीलिए अपनाया था कि निर्द्वन्द्व विचरण में कोई बाधा न रहे।
भगवान् महावीर दूसरी-तीसरी नहीं, प्रथम श्रेणी के घुमक्कड़ थे। वह आजीवन घूमते ही रहे। वैशाली में जन्म लेकर विचरण करते ही पावा में उन्होंने अपना शरीर छोड़ा।'
- (महापण्डित श्री राहुल सांस्कृत्यायन, अथातो घुमक्कड़-जिज्ञासा)
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* महावीर वस्तुत: जैनधर्म के प्रतिष्ठापक नहीं थे, अपितु परमप्रभावक थे। वर्तमान युग में जैनधर्म की प्रथम प्रभावना आदिब्रह्मा तीर्थकर ऋषभदेव ने की थी।
___प्राकृतविद्या-जनवरी-जून'2001 (संयुक्तांक) + महावीर-चन्दना-विशेषांक 007 Jain Education International
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