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सम्पादकीय
भगवान महावीर की समसामयिकता
-डॉ
सुदीप जैन
वीर: सर्वसुरासुरेन्द्रमहितो, वीरं बुधाः संश्रिताः। वीरेणाभिहित: स्वकर्मनिचयो, वीराय भक्त्या नमः ।। वीरात् तीर्थमिदं प्रवृत्तमतुलं, वीरस्य घोरं तपः।
वीरे श्री-धति-कीर्ति-कान्ति-निचयो, हे वीर ! भद्रं त्वयि ।। इक्ष्वाकुवंश-केसरी, काश्यपगोत्री, लिच्छिविजाति-प्रदीप, नाथकुल-मुकुटमणि प्रात:स्मरणीय तीर्थंकर वर्द्धमान महावीर के 2600वें जन्मकल्याणक का वर्षव्यापी कार्यक्रम विश्वस्तर पर मनाया जा रहा है। अनेकों समितियों का एतदर्थ विभिन्न स्तरों पर निर्माण हुआ है तथा व्यापक ऊहापोहपूर्वक बहुआयामी कार्यक्रमों की रूपरेखा भी बनायी गयी हैं। ऐसी योजनाओं आदि की चर्चा किये बिना मैं अपेक्षित समझता हूँ कि हम भगवान् महावीर के प्रामाणिक जीवनवृत्त और उनके सन्देशों की समसामयिकता को जान सके, तो भी वह वर्षव्यापी आयोजन किसी सीमा तक चरितार्थ हो सकता है।
भारतीय जीवन पर जैनसंस्कृति एवं भगवान् महावीर के आचार-विचार की अमिट छाप रही है। इसीलिए कृतज्ञ होकर सन्तों एवं मनीषियों ने उनका सविनय यशोगान किया है
देवाधिदेव परमेश्वर वीतराग ! सर्वज्ञ तीर्थकर सिद्ध महानुभाव !! त्रैलोक्यनाथ जिनपुंगव वर्द्धमान ! स्वामिन् गतोऽस्मि शरणं चरणद्वयं ते ।।
अर्थ :- हे देवाधिदेव वीतराग-सर्वज्ञ-तीर्थंकर-सिद्ध-महानुभाव-त्रैलोक्यनाथ-परमेश्वरजिनों में श्रेष्ठ वर्द्धमान महावीर स्वामी ! मैं आपके चरणयुगल की शरण में आया हूँ।
णाणं सरणं मे दंसणं च सरणं च चरिय-सरणं च।
तव-संजमं च सरणं भगवं सरणं महावीरो।। अर्थ :-... मेरे लिये ज्ञान-दर्शन-चारित्र-तप-संयम शरणभूत हैं और भगवान् महावीर
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प्राकृतविद्या-जनवरी-जून'2001 (संयुक्तांक) + महावीर-चन्दना-विशेषांक
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