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________________ भगवान् महावीर के जन्म के समय उनके मातृकुल एवं पितृकुल —दोनों में ही गणतन्त्रीय लोकतन्त्र का वातावरण था, जिसका प्रभाव उनके चिंतन एवं जीवन पर बाल्यावस्था से ही होना स्वाभाविक था। जैन-परम्परा में यह वैशिष्टय है कि वीतरागता एवं सर्वज्ञता की प्राप्ति पर 'अर्हत' पद को प्राप्त करनेवाले सभी आत्मा में 'परमात्मा' होते हैं, उन्हें 'भगवान' भी कहा जाता है; किन्तु जो ‘अर्हत्' या 'भगवान्' इस अवस्था की प्राप्ति से पूर्व ही लोकहित की भावना से ओतप्रोत होते हैं, प्राणीमात्र तक आत्महित का सन्देश पहुँचाने की प्रबल भावना रखते हैं, उन्हें तीर्थंकर नामकर्म' नाम उत्कृष्टतम कर्मप्रकृति का बंध होता है। इसके फलस्वरूप वे 'अर्हत्' और 'भगवान्' होने के साथ-साथ तीर्थंकर' भी कहलाते हैं तथा उनकी दिव्य-देशना या उपदेश से अनेकों जीवों के आत्मकल्याण का मार्गप्रशस्त होता है। इसप्रकार आत्महित एवं लोकहित --~-दोनों के अनुविधाता 'तीर्थकर' कहलाते हैं। जैन-मान्यतानुसार एक कालखण्ड में भारतवर्ष में कुल 24 तीर्थंकर ही हो सकते है, जिनमें इस कालखण्ड के चौबीसवें तीर्थंकर भगवान् महावीर थे। 'तीर्थकर' होने के कारण उनसे लोकहित भी होना अवश्यंभावी था। किन्तु वर्द्धमान महावीर के साथ एक और वैशिष्ट्य जुड़ा हुआ था, और वह था गणतांत्रिक एवं लोकतांत्रिक वातावरण में जन्मत: रहना। इसीलिये उनका चिंतन मनुष्यमात्र के हित के लिये सीमित न होकर प्राणीमात्र के हित के लिये व्यापक हुआ। भारतवर्ष में प्रचलित गणतांत्रिक विचारधारा के लिये यह एक नई दिशा थी। इसका व्यापक परिणाम सामने आया, और हर वर्ग के लोग इस उदात्त चिंतन से अनुप्राणित होकर उनके अनुगामी बने। भगवान् महावीर ने बाल्यावस्था से ही लोकतांत्रिक मर्यादाओं को अपनाया। चाहे वे बाल्य-क्रीड़ायें हों, या फिर अन्य क्रिया-कलाप; बालक वर्द्धमान से लेकर राजकुमार वर्द्धमान तक की यात्रा में वे इन चिंतनों को साथ लेकर चले । अजमुखी संगमदेव के साथ बाल-क्रीड़ा हो अथवा मदोन्मत्त हाथी को निर्मद करना, इन सभी घटनाओं के पीछे वैयक्तिक प्रतिष्ठा की कामना न होकर जनता को निर्भय और सुरक्षित वातावरण प्रदान करना उनका मुख्य उद्देश्य था। यहाँ यह बात विशेषरूप से मननीय है कि उन्होंने प्रजाजनों का संरक्षण तो किया ही; किन्तु विषधर के रूप में आनेवाले संगमदेव या मदोन्मत्त हाथी --- इनमें से किसी को भी किसी प्रकार की पीड़ा नहीं पहुँचाई, मात्र उनके निरंकुश एवं लोकविघातक आचरण को ही मर्यादित एवं नियंत्रित किया। बाल्यकाल से ही प्राणीमात्र के प्रति अहिंसक आचरण की यह लोकतांत्रिक दृष्टि अपने आप में एक अनुपम निदर्शन है। युवावस्था में भी जब वह चिंतन-मग्न होते, तो उनके चिंतन का विषय आत्महित एवं लोकहित —दोनों ही रहते थे। साथ ही उस चिंतन में इतनी व्यापकता होती थी कि यदि प्राकृतविद्या-जनवरी-जून'2001 (संयुक्तांक) + महावीर-चन्दना-विशेषांक 40 83 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003215
Book TitlePrakrit Vidya 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajaram Jain, Sudip Jain
PublisherKundkund Bharti Trust
Publication Year2001
Total Pages148
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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