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'तिलोयपण्णत्ती' में भगवान महावीर और उनका
सर्वोदयी दर्शन
-डॉ० राजेन्द्र कुमार बंसल
आचार्य यतिवृषभ द्वारा विरचित 'तिलोयपण्णत्ती' नामक ग्रन्थ जैन आगम-परम्परा में ज्ञान-विज्ञान का अद्भुत भण्डार माना जाता है। इसमें धर्म, दर्शन, तत्त्वज्ञान, इतिहास, खगोल, भूगोल एवं अन्य बहुआयामी प्ररूपण प्राप्त होते हैं। भगवान् महावीर के मांगलिक उपदेशों के विचार-बिन्दुओं का जैसा प्रासंगिक प्ररूपण इस ग्रन्थ में आचार्यप्रवर ने किया है, विद्वान् लेखक ने उनका श्रमपूर्वक संकलन करके व्यवस्थित लिपिबद्धीकरण इस आलेख में किया है।
-सम्पादक
तिलोयपण्णत्ती' जैनधर्म के करणानुयोग का महत्त्वपूर्ण ग्रंथ है। इसकी रचना प्राकृतभाषा में आचार्य यतिवृषभ ने ईसा की 5वीं शताब्दी में की थी। इस महाग्रंथ में 5746 प्राकृत गाथायें हैं, जो नौ महाधिकारों में निबद्ध हैं। इसमें जैन भूगोल, खगोल, इतिहास, महापुरुषों का जीवन और सिद्धत्व-प्राप्ति के कारणों आदि का वर्णन है। आचार्य यतिवृषभ ने इस ग्रंथ के अतिरिक्त जैन-साहित्य के आद्य-ग्रंथ कसायपाहुड' पर चूर्णिसूत्रों की रचना की थी। प्रस्तुत आलेख में तिलोयपण्णत्ती' में वर्णित भगवान् महावीर और उनके दर्शन का वर्णन किया है। 'तिलोयपण्णत्ती' में भगवान महावीर
विद्यमान अवसर्पिणी-काल में नाभिराय कुलकर के पश्चात् भरतक्षेत्र में पुण्योदय से मानवों में श्रेष्ठ और सम्पूर्ण लोक में प्रसिद्ध 63 शलाकापुरुष उत्पन्न हुए। चौबीस तीर्थकर, बारह चक्रवर्ती, नौ बलभद्र, नौ नारायण और नौ प्रतिनारायण —इसप्रकार 63 महापुरुष होते हैं। भरतक्षेत्र में वंदन करने योग्य ऋषभदेव से लेकर महावीर-पर्यंत चौबीस तीर्थंकर हुये। तीर्थकर भव्य जीवों के संसाररूपी वृक्ष को ज्ञानरूपी फरसे से छेदते हैं। इसप्रकार आत्मज्ञान के द्वारा जगत् के जीवों को मुक्ति का मार्ग दर्शाकर धर्मतीर्थ का प्रवर्तन करना ही तीर्थंकरों की सहज प्रवृत्ति होती है।
चतुर्थ काल के 75 वर्ष 87 माह शेष रहने पर चौबीसवें तीर्थंकर भगवान् महावीर
प्राकृतविद्या जनवरी-जून'2001 (संयुक्तांक) + महावीर-चन्दना-विशेषांक 40 77
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