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थी शक्ति कैसी प्रभु-भक्ति में
-प्रभाकिरण जैन
खुल गईं बेड़ियाँ अकस्मात्, था उसके जीवन का प्रभात। सुनते ही वीर प्रभु आए' दौड़ी, भूली वो बन्दीद्वार। भूली अपना दासत्व-बोध, भूली पीड़ा थी जो अपार।।
“आहार प्रभु को मैं दूंगी" बस यह ही जपती थी मन में। कोदों के मुट्ठी-भर दाने बिखरे तारे बन जीवन में।।
थी शक्ति कैसी प्रभु-भक्ति में, प्रभु के शुभ-चरण वहीं ठहरे। नवधा-भक्ति चंदनबाला की, तोड़ गई सारे पहरे।।
लेकर आहार चन्दना से, खोला प्रभु ने मुक्ति का द्वार। दासत्व-प्रथा का किया अन्त, समता-भावों का कर प्रचार।।
श्री वीर प्रभु की घर-घर में, कहनी है फिर से आज कथा।। गर वीर प्रभु को भुला दिया, तो होगी चारों ओर व्यथा ।।
प्राकृतविद्या-जनवरी-जून'2001 (संयुक्तांक) + महावीर-चन्दना-विशेषांक 00 75
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