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इस नगर में रहनेवाले सभी लोग अपने को राजा-तुल्य मानते थे :“एकैक एवं मन्यते अहं राजा अहं राजेति।”
—(ललितविस्तर. 3/23, पृष्ठ 15) बौद्ध-ग्रंथों में वैशाली को ‘महानगर' कहा गया है... 'वैशाली महानगरीमनुप्राप्तोऽभूत् ।'
-(ललितविस्तर, 16/15, पृ0 174) वैशालिक महावीर की बौद्ध-ग्रंथों में बहुत महिमा गायी गई है...
“अयं देव निगंठो नातपुत्तो संघी चेव गणी च गणाचारियो च जातो यसस्सी तित्थकरो साधुसंमतो बहुजनस्स रत्तस्सू चिरपव्वजितो अद्धगत वयो अनुपत्ताति।"
-(दीघनिकाय, भाग 1, पृ० 48-49) अजातशत्रु के सम्मुख उसके अमात्य ने महावीर के संबंध में महात्मा बुद्ध से कहा है --- हे देव! यह निर्ग्रन्थ ज्ञातपुत्र संघ और गण के स्वामी हैं। गण के आचार्य, ज्ञानी और यशस्वी तीर्थंकर हैं। साधुजनों के पूज्य और बहुत लोगों के श्रद्धास्पद हैं। ये चिरदीक्षित और अवस्था में प्रौढ़ हैं। इतिहास-विख्यात 'लिच्छवि वंश' __वर्द्धमान महावीर का वंश 'लिच्छिवी वंश' था। इस वंश के बारे में वैदिक ग्रंथों में निम्नानुसार उल्लेख मिलता है
__ "झल्लो मल्लश्च राजन्याद् व्रात्या लिच्छविरेव च। नरश्च करणश्चैव खसो द्रविड एव च।।"
--(मनुस्मृति, 10/22) अर्थ :-- 'झल्ल' व 'मल्ल' सामान्य क्षत्रियों से उत्पन्न हुये तथा लिच्छवि, नर, करण, खस एवं द्रविड़ -ये 'व्रात्य' (एक विशेष उच्च कुलीन) क्षत्रियों से उत्पन्न हुये हैं।
महात्मा बुद्ध ने लिच्छवियों को स्वर्ग के देवता' कहा है___"ये सं भिक्खवे ! भिक्खुनं देवा तावतिंसा अदिवा ओलोकेथ भिक्खवे ! लिच्छवनी परिसं, अपलोकेथ भिक्खवे ! लिच्छवी-परिसरं ! उपसंहरथ भिक्खवे ! लिच्छवे ! लिच्छवी-परिसरं तावतिंसा सदसन्ति ।”
-(महापरिनिव्वाणसुत्त, 66) अर्थ :-- देखो भिक्खुओ ! लिच्छवियों की परिषद् को, भिक्खुओ ! देखो लिच्छवियों की परिषद् को। भिक्खुओ ! लिच्छवियों की परिषद् को देखो। भिक्खुओ ! लिच्छवियों की परिषद् को देव-परिषद् (त्रयस्त्रिशं) समझो।
देवताओं की परिषद्-सी दिखाई पड़ने वाली लिच्छवी-परिषद् को देखकर महात्मा गौतम बुद्ध पुलकित और आनन्द-विभोर हो गये। उन्होंने देव-परिषद् की तरह उसे दिव्य-दर्शन कहा।
10 68 प्राकृतविद्या-जनवरी-जून'2001 (संयुक्तांक) + महावीर-चन्दना-विशेषांक Jain Education International For Private & Personal Use Only
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