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________________ विश्व ने स्वीकार किया है; तथा आज भारत यदि स्वतन्त्र है, तो महावीर के इसी सिद्धान्त के आधार पर हो सका है। भारत गणराज्य के संविधान के मुखपृष्ठ पर तीर्थंकर महावीर का चित्र अंकित है और उसके नीचे लिखा है कि “भगवान् महावीर के अहिंसा सिद्धान्त के आधार पर ही इस देश को स्वतन्त्रता प्राप्त हुई है । ” आज वैशाली के वर्द्धमान के जीवन के आदर्शो एवं सन्देशों को व्यक्तित्व निर्माण एवं राष्ट्र हित के लिए जीवन में उतारने की अपेक्षा है । महावीर के बारे में यह भ्रम फैलाया गया कि वे ब्राह्मणों या वैदिक धर्म के विरोधी थे। जबकि महावीर के प्रधान शिष्य का पद 'इन्द्रभूति गौतम' नामक ब्राह्मण वैदिक विद्वान् को मिला था । तथा महावीर के उपदेशों में जैन होते हुए भी आम्नाय - विरुद्ध उपदेश करनेवाले ‘मस्करी' जैसे साधुओं की उन्होंने निंदा नहीं की थी । महावीर व्यक्तिवादी या जातिविरोधी नहीं थे । वे सिद्धान्तवादी एवं अनाचार - र-विरोधी थे । तथा उन्होंने उपदेश के पूर्व अपने जीवन में उन सिद्धान्तों को उतारा था । इसी लोकोत्तर दृष्टि ने उन्हें 'नर' से 'नारायण' (तीर्थंकर) की गरिमा तक पहुँचाया। 'वैशालिक' वर्द्धमान महावीर के सन्देशों एवं आदर्शों की अनुकृति बनने की पावन प्रेरणा एवं संकल्प के साथ उनकी 2600वीं पावन जन्म जयन्ती पर उन्हें श्रद्धापूर्वक स्मरण करते हुए कृतज्ञ विनयांजलि अर्पित है। आप्त भगवान् महावीर 1 “ यदीये चैतन्ये मुकुर इव भावाश्चिदचित:, समं भान्ति धौव्य-व्यय- - जनि - लसन्तोऽन्तरहित जगत्साक्षी मार्ग - प्रकटनपरो भानुरिव यो, महावीरस्वामी नयन- पथ-गामी भवतु मे ।। ” - ( कविवर भागचन्द्र जी विरचित 'महावीराष्टकस्तोत्र', पद्य 1 ) अर्थ :जिनके चैतन्य में दर्पण की भाँति समस्त चेतन एवं अचेतन द्रव्य पर्यायों-सहित उत्पाद-व्यय - ध्रौव्य से शोभायमान निरन्तर युगपत् प्रतिभासित होते हैं । जो लोक के साक्षीभूत हैं (सर्वज्ञ) तथा जैसे सूर्य के प्रकाश में लोगों को जगत् के चराचर पदार्थ प्रकट ज्ञात होते हैं, उसी तरह जिनके ज्ञानरूपी प्रकाश में लोग के समस्त पदार्थ प्रकटित होते हैं – ऐसे श्री महावीर स्वामी मेरे नयनपथगामी हों अर्थात् मुझे साक्षात् दृष्टिगोचर हों । चूँकि वीतरागता, सर्वज्ञता और हितोपदेशिता ---- ये तीनों गुण आप्त के माने गये हैं, अतः कविवर भागचन्द्र जी ने यहाँ भगवान् महावीर की आप्त के रूप में वन्दना की है, यह स्पष्ट है । ** प्राकृतविद्या जनवरी - जून 2001 (संयुक्तांक) महावीर - चन्दना- - विशेषांक 0059 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003215
Book TitlePrakrit Vidya 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajaram Jain, Sudip Jain
PublisherKundkund Bharti Trust
Publication Year2001
Total Pages148
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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