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मनुष्य के मनोवैज्ञानिक एवं आध्यात्मिक जीवन के ताल-मेल को बैठाता है।" एक दार्शनिक जब जैनधर्म के मूलतत्त्व अहिंसा एवं बौद्धिक सहयोग के साथ अन्य धार्मिक विचारों पर अपने मत व्यक्त करता है, तो उसमें स्याद्वाद से विचारों की निष्पक्षता आती है, और यह निश्चित करता है कि सत्य किसी की पैतृक सम्पत्ति नहीं है और ना ही । किसी जाति या धर्म की सीमाओं में सीमित है। ___ मनुष्य का ज्ञान सीमित एवं अभिव्यक्ति अपूर्ण है, अत: विभिन्न सिद्धान्त का निरूपण अपूर्ण ही है, ज्यादा से ज्यादा वे सत्य की एकतरफा दृष्टि को ही प्रस्तुत करते हैं, जो शब्द या विचारों द्वारा ठीक रूप से व्यक्त नहीं की जा सकती। धर्म सत्य का प्रतिनिधित्व करता है, अत: सहिष्णुता जैनधर्म एवं आदर्शों की मूल आधारशिला है। इस सम्बन्ध में तो जैन- शासकों और सेनापतियों तक के आदर्श अनुकरणीय है। भारत के राजनैतिक इतिहास से यह स्पष्ट रूप से ज्ञात होता है कि किसी भी जैनशासक ने कभी किसी को मौत की सजा नहीं दी, जबकि जैन साधु एवं जैनियों को अन्य धर्मावलम्बियों की धर्मान्धता का कोप-भाजन बनना पड़ा। डॉ० Saletore ने ठीक ही कहा है"जैनधर्म के महान् सिद्धान्त अहिंसा ने हिन्दू-संस्कृति को सहिष्णुता के सम्बन्ध में बहुत कुछ दिया है तथा यह भी सुनिश्चित है कि जैनियों ने सहिष्णुता का पालन जितनी अच्छी तरह एवं सफलतापूर्वक किया, उतना भारत के अन्य किसी वर्ग से नहीं किया।"
एक समय था जब मनुष्य प्रकृति की दया पर निर्भर था, पर आज प्रकृति के रहस्यों पर विजय पाकर वह उसका स्वामी बन बैठा है। विज्ञान की विभिन्न शाखाओं का तेजी से विकास हो रहा है। अण-शक्ति एवं राकेटों के आविष्कार ऐसे आश्चर्यकारी हैं कि यदि वैज्ञानिक चाहे, तो सम्पूर्ण मानव-जाति को कुछ ही क्षणों में ध्वंस कर सारी की सारी पृथ्वी को अदल-बदल सकता है; अत: आज सम्पूर्ण मानव-जाति विपत्ति के कगार पर खड़ी है, जिससे उसका मस्तिष्क पथ-भ्रष्ट हो चकरा रहा है तथा उसकी शरण में भाग रहा है, जहाँ इस विनाश से सुरक्षा (राहत) मिल सके; अत: निश्चय ही हमें अपने प्राचीन आदर्शों का पुनरंकन करना होगा। ____ वैज्ञानिक प्रगति मनुष्य को अधिकाधिक सुख-शान्ति प्रदान करने के लिए प्रयत्नशील है, पर दुर्भाग्यवश मनुष्य-मनुष्य रूप से नहीं समझा जा रहा है; प्राय: गोरी जातियाँ ही मनुष्यता की अधिकारिणी समझी जाती हैं। -----यही दृष्टिकोण हमारे नैतिक स्तर का विध्वंसक है। यदि विश्व का कुछ भाग अधिक सुसभ्य एवं प्रगतिशील बना हुआ समझा जाता है, तो वह निश्चय ही विश्व के बाकी भाग की नादानी एवं सज्जनता के बल-बूते पर ही बना है। मानव-जाति का सहयोगात्मक सामूहिक विकास ही जातिभेद-नीति को जड़मूल से नष्ट कर सकता है। अपनी व्यक्तिगत समृद्धता एवं श्रेष्ठता की अपेक्षा मानवमात्र की श्रेष्ठता एवं पवित्रता का महत्त्व समझा जाना चाहिए। वैज्ञानिक-प्रवृत्ति एवं
Jain E प्राकृतविद्या-जनवरी-जून'2001 (संयुक्तांक) महावीर-चन्दना-विशेषांक 90 39 org