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________________ सर्वोदयं तीर्थमिदं तवैव - आचार्य विद्यानन्द मुनि तीर्थंकर भगवान् महावीर का तीर्थ अर्थात् प्राणीमात्र के लिये हितकारी मंगल उपदेश अत्यन्त महत्त्वपूर्ण और लोककल्याणकारी था, यह तो निर्विवाद ध्रुवसत्य है ही, साथ ही वर्तमान परिस्थितियों में उसका सक्षम रीति से प्रतिपादन किया जाना भी अत्यन्त उपयोगी । वैचारिक संकीर्णता के उत्तरोत्तर होते हुये प्रसार के इस वातावरण में प्राणीमात्र के हित के साथ-साथ प्रकृति और पर्यावरण का हित भी जिसके प्रतिपादन में समाहित रहा हो, ऐसा महामनीषी विचारक वर्तमानकाल में अत्यंत दुर्लभ है । भगवान् महावीर इन्हीं कारणों से आज अत्यंत प्रासंगिक हैं और उनका उपदेश भी आज कहीं अधिक उपयोगी है। इस तथ्य को रेखांकित करता हुआ महामनीषी आचार्यप्रवर विद्यानन्द जी मुनिराज का यह आलेख नि:संदेह न केवल जिज्ञासुओं के लिये व्यापक उपयोगी होगा, अपितु इस विशेषांक की अनुपम श्रीवृद्धि भी करेगा । --सम्पादक वीतराग संस्कृति का जन्मदाता जैनधर्म जैनधर्म अर्थात् जिनों का धर्म । जिन्होंने वीतराग - संस्कृति को जन्म दिया, परमश्रुत की प्रभावना से विश्व के परः कोटि पतितों का उद्धार कर उन्हें भव्यत्व प्रदान किया, सम्यग्दृष्टि दी और भव-सन्तरण का मार्गोपदेश किया; वे 'जिन' हैं । श्रमण-मुनियों की कठिन - कठोर चर्या ने सम्यक्त्व - संवलित चरित्रों को चरितार्थ किया । वह धर्म, जिसने हिंसा को परास्त कर 'अहिंसा परम धर्म' की स्थापना की। माँस, मद्य से पंकिल पृथ्वी को अहिंसामृत-सिंचन से पवित्र किया और दया के धर्म-दुर्ग की रचना की । न केवल मनुष्यपर्याय उससे उपकृत हुई, अपितु तिर्यंचों के भी भाग्य फले और जिनकी शुभोदय-बेला आई, वे यावज्जीवन पातकी रहकर भी मृत्यु- समय में महामंत्र 'णमोकार' सुन सके और उन्हें उत्तम-योनि और श्रेष्ठ - लोकों की प्राप्ति हुई । जीवन्धर ने जन्मपातकी कुत्ते की मरणबेला में 'पञ्च-परमेष्ठी - मंत्र' सुनाया, जिससे उसे सद्गति मिली । काष्ठानल में दग्ध होते नाग-मिथुन अन्तिम समय में पवित्र णमोकार मंत्र' सुनने से वे भवान्तर में धरणेन्द्र-पद्मावती बने। तीर्थंकरों द्वारा निरूपित सर्वोदय तीर्थ प्राकृतविद्या जनवरी - जून 2001 (संयुक्तांक) Jain Education International महावीर चन्दना-विशेषांक 0017 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003215
Book TitlePrakrit Vidya 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajaram Jain, Sudip Jain
PublisherKundkund Bharti Trust
Publication Year2001
Total Pages148
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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